भारतीय युवाओं की बौद्धिक प्रतिभा, तेजस्विता, और विश्वव्यापी स्पर्धा में टिकने की क्षमता पर हमें गर्व है. पर यह सच है कि इन युवाओं का जीवन लक्ष्य या आदर्श अस्पष्ट है? क्या सिर्फ़ पैसा कमाना जीवन का मकसद है? उपभोक्तावाद का सुख भोगना जीवन का दर्शन है? कुछ अधिक पैसे मिलने पर रोज नौकरी बदलना, जीवन का मर्म है? शराब पीना, देर रात तक पार्टियों में मौज और फ़िर बिना बंधन या शादी के साथ रहना? क्या ये नयी पीढ़ी के आदर्श हैं? आज देश में कहीं कोई इतिहास बनानेवाली ताकत नहीं दिखती. युवा ही इतिहास बदलने के इंजन होते हैं. पुरानी चीजों को छोड़ दें, तो 60 के दशक में युवाओं ने ही दुनिया में बदलाव का नया सूत्रपात किया. भारत में तो पुराने समय से ही युवा बदलाव के प्रतीक, स्रोत और ताकत रहे हैं. 1974 के छात्र आंदोलन तक. आज छात्र या युवा राजनीति बांझ हो गयी है.
ए न आर नारायणमूर्ति का एक साहसिक बयान आया है. जिसका भाव या आशय है कि भ्रष्ट और बेईमान लोग भारतीय युवाओं के रोल मॉडल बन रहे हैं. एक किताब के लोकार्पण कार्यक्रम में उन्होंने कहा, वैसे लोगों की संख्या घट रही है, जिन्हें युवा रोल मॉडल मानें. उन्होंने यह भी पूछा कि हमारे सार्वजनिक जीवन में आज कितने लोग हैं, जो अपनी ईमानदारी, साहस, प्रतिबद्धता और कठिन श्रम करने के कारण आत्मगौरव महसूस करते हैं? भ्रष्टाचार के कारण लोग, लोकधर्म का पालन नहीं करते. आज समाज में बेईमानी, धोखेबाजी, धूर्तता और चलता है का रुख और एप्रोच है. ऐसे ही मानस के लोग आज अधिक से अधिक ताकतवर बन रहे हैं. और संपन्न भी. श्री मूर्ति ने कहा, इस सामाजिक माहौल में हमारे युवा गलत संकेत पा रहे हैं. उनका मानस बन रहा है कि सफ़ल होने का यही रास्ता है. श्री मूर्ति ने स्पष्ट कहा, मैं इसके लिए युवकों को दोष नहीं देता. श्री मूर्ति ने भारत के स्वभाव और सोच पर भी टिप्पणी की. उनके अनुसार भारतीय पूरी दुनिया में पतली चमड़ी के लोग हैं. वे वहां भी अपमान महसूस करते हैं, जहां अपमान का कोई अंदेशा नहीं है. मामूली बात पर भी बिना वजह असंतुष्ट या चिढ़े. श्री मूर्ति ने यह भी कहा कि भारतीय अपने परिवार के स्वार्थ और हित को समाज से अधिक तरजीह देते हैं, जिसने देश का भारी नुकसान किया है. उनका मानना है कि पश्चिम ने घर, परिवार और समाज के बीच अच्छा संतुलन बनाया है. उन्होंने अपना अनुभव सुनाया कि भागवतगीता से हमें मानसिक शांति मिलती है. यह भी कहा कि भागवतगीता का संबंध किसी धर्म से नहीं. यह हिंदू धर्म की तरह जीवन पद्धति की पुस्तक है.
जो लोग भारत की युवा शक्ति के उदय और आइटी उद्योग के विश्वव्यापी जाल पर फ़ा महसूस करते हैं, उन्हें नारायणमूर्ति के विचार को धैर्य से समझने की कोशिश करनी होगी. ये बातें किसी राजनेता को कहनी चाहिए थीं. जो भारत के लिए चितिंत हैं. जिनमें दूरदृष्टि है. राजधर्म है. उन्हें श्री मूर्ति की बातें बिलकुल सही लगेंगी.
भारतीय युवाओं की बौद्धिक प्रतिभा, तेजस्विता, और विश्वव्यापी स्पर्धा में टिकने की क्षमता पर हमें गर्व है. पर यह सच है कि इन युवाओं का जीवन लक्ष्य या आदर्श अस्पष्ट है? क्या सिर्फ़ पैसा कमाना जीवन का मकसद है? उपभोक्तावाद का सुख भोगना जीवन का दर्शन है? कुछ अधिक पैसे मिलने पर रोज नौकरी बदलना, जीवन का मर्म है? शराब पीना, देर रात तक पार्टियों में मौज और फ़िर बिना बंधन या शादी के साथ रहना? क्या ये नयी पीढ़ी के आदर्श हैं? आज देश में कहीं कोई इतिहास बनानेवाली ताकत नहीं दिखती. युवा ही इतिहास बदलने के इंजन होते हैं. पुरानी चीजों को छोड़ दें, तो 60 के दशक में युवाओं ने ही दुनिया में बदलाव का नया सूत्रपात किया. भारत में तो पुराने समय से ही युवा बदलाव के प्रतीक, स्रोत और ताकत रहे हैं. 1974 के छात्र आंदोलन तक. आज छात्र या युवा राजनीति बांझ हो गयी है.
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