हम आम आदमी है
किसी ‘खास’ का अनुगमन हमारी नियति है
हमारे बीच से ही बनता है कोई ‘खास‘
हमारी मुट्ठियाँ देती हैं शक्ति
हमारे नारे देते हैं आवाज़
हमारे जुलूस देते हैं गति
हमारी तालियाँ देती हैं समर्थन ….
तकरीरों की भट्टियों मे
पकाए जाते हैं जज़्बात
हमारे सीने सहते हैं आघात
धीरे धीरे
बढ़ने लगती हैं मंचों की ऊँचाइयाँ
पसरने लगते हैं बैरिकेट्स
पनपने लगती हैं मरीचिकाएं
चरमराने लगती है आकांक्षाओं की मीनार
तभी… अचानक होता है आभास
कि वो आम आदमी अब आम नहीं रहा
हो गया है खास
और फिर धीरे धीरे …..
उसे बुलंदियों का गुरूर होता गया
आम आदमी का वही चेहरा
आम आदमी से दूर होता गया
लोगों ने समझा नियति का खेल
हो लिए उदास …
कोई चारा भी नहीं था पास
लेकिन एक दिन
जब हद से बढ़ा संत्रास
(यही कोई ज़मीरी मौत के आस-पास )
फिर एक दिन अकुला कर
सिर झटक, अतीत को झुठला कर
फिर उठ खड़ा होता है कोई आम आदमी
भिंचती हैं मुट्ठियाँ
उछलते हैं नारे
निकलते हैं जुलूस ….
गढ़ी जाती हैं आकांक्षाओं की मीनारें
पकाए जाते हैं जज़्बात
तकरीर की भट्टियों पर
फिर एक भीड़ अनुगमन करती है
छिन्नमस्ता,……!
और एक बार फिर से
बैरीकेट्स फिर पसरते हैं
मंचों का कद बढ़ता है
वो आम आदमी का नुमाइंदा
इतना ऊपर चढ़ता है …
कि आम आदमी तिनका लगता है
अब आप ही कहिए… ये दोष किनका लगता है?
वो खास होते ही आम आदमी से दूर चला जाता है
और हर बार
आम आदमी ही छ्ला जाता है
चलिये कविता को यहाँ से नया मोड़ देता हूँ
एक इशारा आपके लिए छोड़ देता हूँ
गौर से देखें तो हमारे इर्द गिर्द भीड़ है
हर सीने मे कोई दर्द धड़कता है
हर आँख मे कोई सपना रोता है
हर कोई बच्चों के लिए भविष्य बोता है
मगर यह भीड़ है
बदहवास छितराई मानसिकता वाली
आम आदमी की भीड़
पर ये रात भी तो अमर नहीं है !!
एक दिन ….
आम आदमी किसी “खास” की याचना करना छोड़ देगा
समग्र मे लड़ेगा अपनी लड़ाई,
वक्त की मजबूत कलाई मरोड़ देगा
जिस दिन उसे भरोसा होगा
कि कोई चिंगारी आग भी हो सकती है
बहुत संभव है बुरे सपने से जाग भी हो सकती है
और मुझे तो लगता है
यही भीड़ एक दिन क्रान्ति बनेगी
और किस्मत के दाग धो कर रहेगी
थोड़ी देर भले हो सकती है ‘
मगर ये जाग हो कर रहेगी
थोड़ी देर भले हो सकती है
मगर ये जाग हो कर रहेगी
साभार:- भाई पद्म सिंह
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