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शुक्रवार, 30 नवंबर 2012

आम आदमी पार्टी की एक अच्छी आलोचना?


आम आदमी के सपने और हकीकत
हरजिंदर, सीनियर एसोशिएट एडीटर, हिन्दुस्तान

हरजिंद जी ने "आप" की अच्छे शब्दों में आलोचना की है.. हम आप तक वो भी पहुचा रहे है..

भाजपा हो या कांग्रेस, या फिर वामपंथी पार्टियां- इन सबके लिए इस समय सबसे बड़ा मुद्दा है खुदरा कारोबार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश। फिलहाल यह ऐसा मसला है, जिस पर पूरे देश की राजनीति में ही ठनी हुई है। सत्ता पक्ष और विपक्ष, दोनों ने ही इसे करो या मरो का मामला बना लिया है। एक इसे देश के आर्थिक संकट की रामबाण दवा बता रहा है, तो दूसरा अर्थव्यवस्था को तबाह कर देने वाला विष। इन दोनों ही बातों में अतिशयोक्ति हो सकती है, पर हैरान करने वाली बात यह है कि राजनीति में नई धूनी रमाने वाली आम आदमी पार्टी इस पर मौन है। वैसे नैतिक मंचों पर खड़े लोगों को अपनी मथुरा हमेशा ही तीन लोकों से न्यारी लगती है, इसलिए भ्रष्टाचार के विरोध में अलख जगाने वाली यह पार्टी एफडीआई जैसे विष या अमृत की सोच से न सिर्फ अपने को परे रखे हुए है, बल्कि उसके मौन का विस्तार उन सभी नीतियों तक फैला है, जिससे लोग अक्सर कुछ पाने या खोने की उम्मीद करते हैं।




पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने एक टेलीविजन इंटरव्यू में बताया है कि अभी उनके पास कोई आर्थिक नीति नहीं है। वैसे आर्थिक ही क्यों, कोई दूसरी नीति भी कहां दिख रही है? सरकार से हम क्या उम्मीद करते हैं? एक तो यही कि वह ऐसी नीतियां बनाए, जो देश को आगे ले जाएं। दूसरे, वह अच्छा प्रशासन दे। भ्रष्टाचार को प्रशासन का मसला माना जाता रहा है। प्रशासन का मसला तो खैर वह है ही, लेकिन उसकी हद वहीं समाप्त नहीं होती। वह नीतियों का मसला भी बन चुका है। पिछले दिनों एक पूर्व कैबिनेट सचिव टेलीविजन पर यह कहते हुए दिखाई दिए कि अक्सर सरकार के स्तर पर नीतियां जनता के हितों को ध्यान में रखकर नहीं, बल्कि कुछ निहित स्वार्थों के पक्ष में बनाई या बदली जाती हैं। हालांकि यह ऐसा सच है, जिसे समझने के लिए हमें किसी पूर्व नौकरशाह की जरूरत नहीं, 2-जी से लेकर कोयला घोटाले तक सब में यह बात नजर आती है। इन्हीं सबके चलते आज के राजनीतिज्ञों में बारे में एक धारणा यह बन चुकी है कि भ्रष्टाचार ही उनकी सबसे बड़ी नीति है। बहुत सारे अपवाद हो सकते हैं, लेकिन शायद यह देश की राजनीति का एक सच भी है।
हमारे सामने एक तरफ ‘भ्रष्टाचार ही सबसे बड़ी नीति’ की स्थिति है। दूसरी तरफ इसकी एंटीथीसिस या काट बनकर खड़ी है अरविंद केजरीवाल की पार्टी, जिसके लिए भ्रष्टाचार विरोध ही सबसे बड़ी नीति है। यानी हमें या तो भ्रष्टाचार मिल रहा है या फिर भ्रष्टाचार से मुक्ति का आश्वासन। आगे बढ़ने की संभावना इन दोनों में ही नहीं दिखती। एक तरफ सिर्फ आगे बढ़ने का वह सपना है, जिसकी पोल अब खुल चुकी है। दूसरी तरफ, तो यह सपना भी नहीं है। क्या देश की राजनीति का भविष्य अब इसी अनुलोम-विलोम से तय होने वाला है? बीस साल बाद आने वाली पीढ़ी हमसे क्या पूछेगी? यही कि समान हालात में होते हुए भी चीन इतना आगे बढ़ गया, लेकिन भारत क्यों नहीं बढ़ा? तब क्या हमारा जवाब यह होगा कि चीन ने अपने भ्रष्टाचार से निपटने को प्राथमिकता बनाने की बजाय आगे बढ़ने को ही अपना मुख्य लक्ष्य बनाया, हमारी प्राथमिकता भ्रष्टाचार से निपटना थी।
जब एक बार इससे पूरी तरह निपट लेंगे, तो आगे बढ़ने की सोचेंगे। वैसे चीन में भी भ्रष्टाचार कोई कम नहीं है। कुछ का कहना है कि वहां वह भारत से भी ज्यादा है। कम भी हो, तो असल मुद्दा भ्रष्टाचार की मात्र नहीं आगे बढ़ने की रफ्तार है। सभी को भ्रष्टाचार मुक्त सरकार और प्रशासन मिले, यह निश्चित रूप से हर नागरिक का अधिकार है। एक लोकतंत्र में तो यह सबसे जरूरी चीज है। लेकिन यहां मुद्दा यह है कि जिस तरह से भ्रष्टाचार युक्त नीतियां हमें कहीं नहीं ले जातीं, वैसे ही नीति मुक्त स्वच्छ प्रशासन भी हमें कहीं नहीं ले जाएगा। वैसे हो सकता है कि नीतियों पर मौन, अरविंद केजरीवाल की एक रणनीति भी हो। वह भ्रष्टाचार से मुक्ति, जन-लोकपाल, स्वराज, लोकतंत्र को निचले स्तर तक ले जाने की जो बातें कर रहे हैं, उन्हें लेकर कुछ लेकिन-परंतु वगैरह भले ही हों, उनसे कोई बड़ा विरोध किसी को नहीं हो सकता। विरोध का संवाद इसके आगे शुरू होता है।
मसलन, अगर आप कहें कि आप समाजवाद लाना चाहते हैं, तो समाजवाद को सही न मानने वाले लोग आपसे अलग हो जाएंगे। या आप कहें कि आप नौकरियों में आरक्षण के खिलाफ हैं, तो एक बड़ा तबका आपको नमस्कार कह सकता है। इसी तरह, अगर आप कहते हैं कि आप कश्मीर मसले पर जनमत संग्रह करवाएंगे, तो वे सारे लोग आपसे नफरत करने की हद तक जा सकते हैं, जो हमेशा से ही कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग मानते रहे हैं। राजनीति में तो यही होता है कि लोग आपकी दिशा से अपनी दिशा का मिलान करते हैं। आपकी मंजिल जानने के बाद वे अपना रास्ता चुनते हैं।
राजनीति में यही होना भी चाहिए। सिर्फ छवि और सिर्फ भावनाओं की राजनीति ने पहले भी देश का कम बुरा नहीं किया है। ज्यादा से ज्यादा लोगों को अपने से जोड़े रखने की अगर यह रणनीति भी है, तो भी यह किसी भी रूप में प्रशंसनीय नहीं है। इसलिए भी कि इसमें अनिश्चित भविष्य की आशंका छिपी है और इसलिए भी कि यह एक तरह से लोगों को धोखे में रखना ही हुआ। अच्छी सरकार वही है, जो देश को किसी मंजिल की तरफ ले जाए।
सत्ता में पहुंचने वाली पार्टी ने जिन सपनों को दिखाकर लोगों के  वोट हासिल किए थे, उन्हें हकीकत में बदलने की पुरजोर और ईमानदार कोशिश करे। साथ ही अपनी इस यात्रा में वह देश, सरकार और प्रशासन को भ्रष्टाचार से मुक्त करने की भी कोशिश करे। भ्रष्टाचार तरक्की के वाहन में लगे जंग की तरह है। इससे पूरी तरह मुक्ति के लिए न तो यात्रा को अनिश्चित काल के लिए स्थगित किया जा सकता है और न ही बिना जंग वाले किसी मिथकीय उड़नखटोले के इंतजार में इस वाहन को पूरी तरह तिलांजलि दी जा सकती है। यह ठीक है कि हमारे शहरी मध्यवर्ग का एक हिस्सा भ्रष्टाचार को ही एकमात्र बाधा मानता है। दरअसल, वह भ्रष्टाचार मुक्त यथास्थिति चाहता है। लेकिन यथास्थिति भ्रष्टाचार मुक्त हो, या भ्रष्टाचार युक्त, वह किसी देश या समाज की मंजिल नहीं हो सकती।

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