Translet

गुरुवार, 15 नवंबर 2012

आपसी हितों के मामले में सभी राजनेता मौसेरे भाई हैं…


नितिन गडकरी पर लगे आरोपों के जवाब में भाजपा के शीर्ष नेतृत्व का आंख मूंदकर कूद पड़ना राजनीतिक प्रहसन मात्र है। गडकरी जैसे कारपोरेट नेतृत्व के व्यावसायिक हितों से खुद को जोड़कर भाजपा ने दलदल में पांव रख दिये हैं।
पहले इंडिया अगेंस्‍ट करप्शन के मूल आरोप पर गौर करें। अरविंद केजरीवाल ने दो चीजों पर फोकस किया। पहला – राजनेताओं के लिए जनहित नहीं बल्कि कारपोरेट हित प्रमुख हैं। दूसरा – आपसी हितों पर सभी राजनेता आपस में मिले हुए हैं।

सुषमा, जेटली, गडकरी, शाहनवाज समेत अधिकांश भाजपा नेताओं ने एक रणनीति के तहत आत्मविश्वास से लबरेज खंडन-मंडन शुरू कर दिया। लेकिन दिलचस्प यह कि इनकी हर बात अरविंद केजरीवाल के दावों की ही पुष्टि कर रही थी। भाजपाई एक स्वर से कहने लगे कि गडकरी ने जमीन हड़पी नहीं बल्कि आबंटित करायी है। यह भी कहा गया कि किसी भी राजनेता को धंधा-पानी करने से आप नहीं रोक सकते। अपने धंधे से गडकरी ने देश व किसानों का कितना भला किया, इसका भी गुणगान किया गया।
केजरीवाल भी तो यही कह रहे थे कि राजनीति तो बस दिखावा है, सब मिलकर देश को लूट रहे हैं।
केजरीवाल का यह प्रहार आर्थिक भ्रष्टाचार पर नहीं बल्कि राजनीतिक भ्रष्टाचार पर केंद्रित था। उन्होंने यह तो कहा ही नहीं कि इसमें इतने का घपला हुआ या उतने का नुकसान हुआ। वह तो लोकतंत्र और राजधर्म के सवाल उठा रहे थे। वह बता रहे रहे थे कि पक्ष-विपक्ष की सांठगांठ हो जाए, तो लोकतंत्र का क्या हश्र होगा। वह दलों के नेतृत्व पर कारपोरेट हितों के हावी होने से पैदा विकृति की पोल खोल रहे थे।
लेकिन गडकरी के घर जुटे भाजपाइयों ने केजरीवाल के खुलासे का मर्म समझने की कोशिश नहीं की। वे तकनीकी पहलुओं का खंडन-मंडन करके इस जाल में उलझ गये। इन नेताओं के चेहरे पर खिखिलाहट थी कि केजरीवाल ने तो बेहद मामूली खुलासे किये, हमें तो बहुत ज्यादा की उम्मीद थी।
लोकतंत्र में राजनीतिक नेतृत्व कैसा हो, इस पर सवाल उठे हैं। नेतृत्व ‘लोकप्रिय‘ होना चाहिए न कि ‘लोभप्रिय‘। किसी समूह या दल का नेता किसी को भी बनाया जा सकता है। ऐसा कोई थोपा गया नेता अपने समूह या दल में सर्वमान्य भी हो सकता है। लेकिन वह लोकप्रिय भी हो, जरूरी नहीं।
लोकप्रिय नेतृत्व तो जनाकांक्षाओं को स्वर देने की एक स्वाभाविक प्रक्रिया में उभर कर आता है। इसमें सिर्फ उन नेताओं को सफलता मिलती है, जो अपने समय और समाज की नब्ज पर हाथ रखना जानते हों। ऐसे नेताओं के ही पीछे कार्यकर्ता चलते हैं। ऐसे ही नेताओं को जनसमर्थन मिलता है। भाजपा में वाजपेयी-आडवाणी के पीछे जुड़े ज्यादातर कार्यकर्ता किसी ठेके-पट्टे की चाहत में नहीं, अपने ढंग के किसी समाज के सपने के कारण जुड़े। जेपी आंदोलन हो या अन्ना और अब केजरीवाल का आंदोलन, हरेक में हम लोकप्रिय नेतृत्व के उभार की एक प्रक्रिया देख सकते हैं। ऐसे नेताओं के विचारों एवं लक्ष्यों में चाहे जितनी भी असमानता हो, उनमें यह समानता जरूर मिलेगी कि ऐसे नेताओं का व्यक्तिगत एजेंडा नहीं बल्कि सामूहिक एवं सामाजिक एजेंडा ही सामने होता है और उसी के लिए लोग उनके पीछे जुड़ते चले जाते हैं।
दुर्भाग्यवश आज अधिकांश दलों में लोकप्रिय नेताओं का स्थान लोभप्रिय लोग लेते जा रहे हैं, जिनके लिए अपने कारपोरेट हित प्राथमिक हैं। अरविंद शायद यही बताना चाहते थे। लेकिन अकेले उनकी प्रेस कांफ्रेंस से यह बात पूरी नहीं हो पाती। भाजपाइयों ने फौरन जवाब देकर केजरीवाल की बात पूरी कर दी।
भाजपा-आरएसएस के जिन हजारों कार्यकर्ताओं ने वाजपेयी-आडवाणी के जिस नैतिक आभावान नेतृत्व के भरोसे अपना खून-पसीना लगाकर बरसों कमल को सींचा है, वे भी निश्चय ही पार्टी में ठेकेदारों-दलालों की तेजी से बढ़त देखकर हैरान होंगे। यह अवसर भाजपा के लिए एक नैतिक आभापूर्ण नेतृत्व को सामने लाने के लिए चिंतन करने का था। गडकरी पर त्वरित प्रतिक्रिया के जरिये भाजपा ने अवसर खो दिया है। गडकरी जैसे कारपोरट नेताओं के प्रति अपने कार्यकर्ताओं में जोश व समर्पण की भावना जगाने में सुषमा-जेटली को अवश्य ही नाकामी हाथ लगेगी। ऐसे में केजरीवाल का खुलासा कांग्रेस की अपेक्षा भाजपा को ज्यादा महंगा साबित हो सकता है क्योंकि कांग्रेस के पास संयोगवश एक राजतंत्रनुमा नेतृत्व घराना तो है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें