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सोमवार, 4 मार्च 2013

बिहार में मीडिया की वास्तविक स्थिति क्या है?

बिहार में मीडिया की वास्तविक स्थिति क्या है. क्या वह वाकई बंधक है? क्या सरकार विज्ञापनों के जरिए उसे नियंत्रित करती है और क्या वाकई राज्य में आपातकाल जैसी हालत है?

प्रेस काउंसिल की रिपोर्ट में मीडिया की परतंत्रता को साबित करने के लिए कई प्रसंगों का हवाला दिया गया है. कहा गया है कि बिहार में चूंकि कॉरपोरेट व औद्योगिक विज्ञापनों की कमी है इसलिए अधिकांश अखबार सरकारी विज्ञापन पर ही निर्भर रहते हैं. इसी वजह से अधिकांश अखबारों को सरकार विज्ञापन के जरिए नियंत्रित करती है. सूचना एवं जनसंपर्क विभाग के एक अधिकारी द्वारा जारी उस पत्र का भी हवाला रिपोर्ट में दिया गया है जिसमें यह कहा गया था कि विभाग और सरकार की खबरों को सही ढंग से कवर किया जाए. दो साल पूर्व फारबिसगंज में हुए गोलीकांड की खबर को राजधानी मंे न छापने या प्रमुखता से स्थान नहीं देने का भी हवाला दिया गया है. ऐसे ही कई और उदाहरण हैं. प्रेस परिषद की फैक्ट फाइंडिंग टीम के सदस्य रहे पत्रकार अरुण कुमार कहते हैं, ‘हमने इसमें अपनी ओर से कोई दिमाग नहीं लगाया है. हम जिन चीजांे को साबित नहीं कर सकते थे उन पर गए ही नहीं, जिनके साक्ष्य और दस्तावेज मौजूद थे उसी पर बात की इसलिए इस रिपोर्ट को कोई खारिज नहीं कर सकता.’

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