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बुधवार, 2 जनवरी 2013

सज़ा से ज़्यादा ख़ौफ़ बढ़ाये जस्टिम वर्मा कमेटी

 लेखक मुकेश कुमार सिंह
बहस छिड़ी है कि बलात्कारी के लिए क़ानून को सख़्त कैसे बनाया जाए? कितना सख़्त मुनासिब होगा? कैसे लागू होगा सख़्त कानून? इस सवालों के उत्तर मुश्किल नहीं हैं। बशर्ते, हम अपवादों या दुरुपयोग की दलीलों को दरकिनार करके सख़्ती के फ़ायदों पर ही फोकस करें। इसे समझना आसान हो सकता है। बस, हमें अपराध से जुड़ी तमाम बातों की परिभाषाएं दुरुस्त करनी होंगी। इसे और भी आसानी से प्रश्नोत्तर शैली में समझा जा सकता है। मसलन,

1. प्रश्न - बलात्कार की परिभाषा  क्या होनी चाहिए?

उत्तर – बलात्कार शब्द का अर्थ है, बलात् यानी जबरन की गयी हरक़त। इस लिहाज़ से तो किसी महिला के प्रति होने वाली हरेक बेज़ा हरक़त जिसमें उसकी सहमति नहीं हो, उसे बलात्कार ही मानना चाहिए।

अपवाद - फब्तियां कसना, अभद्र तरीके से स्पर्श करना, अश्लील शब्द बोलना, अश्लील हरक़त करना, चैन या पर्स खींच लेना, तेज़ाब फेंकना, महिला से लूटपाट करना, जैसी ‘सामान्य’ आपराधिक हरक़तों को बलात्कार नहीं मानना क़ानून की पहली कमज़ोरी है। यही कमज़ोर परिभाषा पूरी क़ानून-व्यवस्था को लचर बना देती है। बलात्कार को सिर्फ़ ‘जबरन और लैंगिक मैथुन’ के रूप में ही परिभाषित करने का हमारा तरीका बेहद अधूरा है। सारी बहस की जड़ यही है। इन्हीं के चलते ‘असली बलात्कारी’ क़ानून के चंगुल से निकल जाने में सफ़ल हो जाते हैं। साफ़ है कि पहली सख़्ती परिभाषा के स्तर पर दिखानी होगी। परिभाषा सख़्त होगी, तो उसे लागू करने की प्रक्रिया आसान हो जाएगी। परिभाषा बोझिल होगी तो वैसा ही होता रहेगा, जैसा अभी तक होता आया है।

सख़्त परिभाषा को लेकर बहुत लोग हाय-तौबा करेंगे। अपने ज्ञान और तर्क का कौशल दिखाएंगे। वो अपराध और सज़ा को छोटा-बड़ा करके तब तक तौलते रहेंगे, जब तक कि उसका कचूमर नहीं निकल जाता। फिर देखते ही देखते हम वहीं पहुँच जाएंगे, जहां अभी खड़े हैं। इसीलिए बलात्कार की परिभाषा हमें ऐसी निष्कपट बनानी होगी, जैसे बिजली के नंगे तारों को छूने का अंज़ाम! बिजली अपने जन्मदाता को भी माफ़ नहीं करती, अगर वो भी उसे ग़लत ढंग से छूने की ज़ुर्रत करें तो। ऐसी ही परिभाषा बलात्कार की होनी चाहिए। साफ़, सहज और व्यापक। समाज में बड़ा परिवर्तन लाना है तो ‘बलात्कार’ को भूल, गल़ती, अपराध और पाप की श्रेणियों में बाँटने के मौजूदा तरीके को ख़त्म करना होगा। इसे सिर्फ़ पाप ही माना जाना चाहिए। भूल के लिए माफ़ी, ग़लती के लिए ज़ुर्माना, अपराध के लिए सज़ा का विधान है। लेकिन पाप के नतीज़ों में माफ़ी, ज़ुर्माना और सज़ा के अलावा प्रायश्चित भी होता है। प्रायश्चित सारी ज़िन्दगी यानी ताउम्र के लिए होता है।

ऐसी सज़ा किसी मानवाधिकार के ख़िलाफ़  नहीं हो सकती। लेकिन हां, इसमें अपराध मनोविज्ञान के उस ‘सुधारवादी’ सिद्धान्त को अपनाने की गुंज़ाइश नहीं है, जो अपराध को गम्भीरता के तराजू पर तौलने, फिर उसी के मुताबिक सज़ा देने और मुमकिन हो तो अपराधी को सुधरने और ख़ुद को बदलने का मौका देने की पैरवी करता है। ‘बर्बरता’ या ‘रेयरेस्ट ऑफ द रेयर’ का सिद्धान्त बाक़ी अपराधों के लिए भले ही मुफ़ीद हो, लेकिन महिलाओं के साथ होने वाले ‘व्यापक बलात्कार’ के मामले में इसकी गुंज़ाइश नहीं होनी चाहिए। सिर्फ़ ऐसी सख़्ती ही कुछ असर दिखा पाएगी। क्योंकि ऐसा कभी नहीं होगा कि ‘व्यापक बलात्कार’ की पीड़ित हरेक महिला क़ानूनी रास्ता देखे ही। अब भी पांच-सात फ़ीसदी मामले ही दर्ज़ हो पाते हैं। सख़्त क़ानून बन जाने पर भी ये 10-12 फ़ीसदी से ऊपर नहीं जा सकता। बाक़ी 85-90 फ़ीसदी मामले फिर भी अलग-अलग वज़हों से क़ानून से दूर ही रहेंगे। जैसे, अपराधी या उसके परिजन पीड़ित के पैरों में गिरकर रहम की भीख मांगेंगे। दयालु और उदार महिलाएं इंसानियत और तमाम अन्य पहलुओं पर ग़ौर करते हुए दरियादिली दिखाने की दुहाईयों के आगे पिघल जाया करेंगी। प्रभावशाली लोग अभी की तरह ही अपने धन-बल के ज़रिये काफ़ी मामलों को रफ़ा-दफ़ा करवाने में क़ामयाब होते रहेंगे।

यानी  ये मत समझिए कि महज़ सज़ा सख़्त कर देने से अपराध  मिट जाएगा। जिन मामलों में महिलाएं उदार रवैया  दिखाएंगी, वो वाक़या भी तो घटित हो ही चुका होगा। लेकिन सख़्त परिभाषा से उन महिलाओं और परिवार को ज़रूर तसल्ली मिलेगी, जो अपराधी को सज़ा दिलवाने तक बाक़ी व्यवस्था से लोहा लेंगी और तरह-तरह की पीड़ाएं झेलेंगी। कुलमिलाकर, सौ में से दस मामले भी अगर पाप के अंज़ाम तक पहुँचेंगे तो समाज में ‘व्यापक बलात्कार’ को लेकर वैसा ख़ौफ़ पनप पाएगा, जैसा हम अपनी बेटियों या महिलाओं के लिए विकसित करना चाहते हैं।

प्रस्तावित  परिभाषा में, इस बात को लेकर भी खूब हाय-तौबा होगी कि लोग तरह-तरह की दुश्मनियों को निपटाने के लिए इसका बेज़ा इस्तेमाल करेंगे। ऐसा बेज़ा इस्तेमाल किस क़ानून का नहीं होता। अब भी बलात्कार के आरोपी को ख़ुद को निर्दोष साबित करना होता है। इसी तरीक़े को क़ायम रखा ही जाना चाहिए। दहेज उत्पीड़न या एससी-एसटी क़ानून को लेकर कई बार दुरुपयोग की बातें सुनायी पड़ती हैं। लेकिन हमने खूब सोच-समझकर तय किया कि हम इनके दुरुपयोग की तुलना सदुपयोग से करेंगे और इसे मौजूदा स्वरूप में ही बरकरार रखेंगे। साफ़ है कि सख़्त परिभाषा बनाते वक़्त हमारी नज़र सदुपयोग और लक्ष्य पर होनी चाहिए। दुरुपयोग का डर अगर हावी हो गया तो वैसा ही भ्रष्ट क़ानून बन जाएगा, जैसा घूस देने और लेने वालों को बराबर का गुनहगार मानने से बन चुका है। ऐसी सोच भी हमें वहीं पहुँचा देगी, जहां हम अभी हैं।

2. प्रश्न – बलात्कार की जांच में क्या सुधार होने चाहिए?

उत्तर – पीड़ित को अपनी पहचान ज़ाहिर करने या गुप्त रखने का विकल्प क़ायम रहना चाहिए। पीड़ित के बयान को पहली बार में ही थाने के स्तर पर और ‘इमरजेंसी मज़िस्ट्रेट’ की मौज़ूदगी में ऐसी धाराओं में दर्ज़ किया जाए, जो अदालती छीछालेदर से परे हों। यानी पीड़ित को ‘अदालती दाँवपेंच’ और ‘आंतरिक मेडिकल’ जांच से पूरी तरह से छुटकारा मिल जाए। मेडिकल जांच के मौजूदा तरीक़े को क़ायम रखा गया तो घूम-फिरकर हम वहीं पहुँच जाएंगे, जहां अभी हैं। पुलिस तमाम वज़हों से पीड़ित की फज़ीहत को ऐसे ही जारी रखेगी, जैसा हम अभी देखते हैं। बयान के मामले में पीड़ित जैसी सहूलियत ही अभियोजन पक्ष के गवाहों को भी मिलनी चाहिए। उन्हें भी कचहरी के झंझटों से बचाना होगा। चार्जशीट दाखिल होने के बाद पीड़ित को अपना मुकदमा वापस लेने की छूट नहीं होनी चाहिए। कमज़ोर तबके की महिलाओं के लिए बलात्कार के बाद यही छूट गले की हड्डी बन जाता है। इस सुझाव को अमल में लाने के लिए बड़ी संख्या में ‘इमरजेंसी मज़िस्ट्रेट’ की ज़रूरत होगी। उनकी भर्तियां की जा सकती हैं। उनका इस्तेमाल ‘मोबाइल फास्ट ट्रैक कोर्ट’ की तरह करने के अलावा थाने के स्तर पर ही बाक़ी मुकदमों के तेज़ी से निपटारे में भी किया जा सकता है।

अपवाद – ये तरीक़ा काफ़ी हद्द तक एक पक्षीय है। कई मायने में प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्तों से भी परे है। लेकिन इसका यही पहलू समाज में महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों को लेकर ख़ौफ़ पैदा करेगा। कोई भी क़ानून सौ फ़ीसदी लागू नहीं हो सकता। असली महिमा उसके ख़ौफ़ की होती है कि ‘धरे गये तो गये’! यहां भी हमें क़ानून के फ़ायदे को उसके बेज़ा इस्तेमाल के मुक़ाबले में तौलने को प्राथमिकता देनी होगी। वैसे क़ानून के दुरुपयोग को कुछ शर्तें जोड़कर घटाया जा सकता है। लेकिन ध्यान रहे कि क़ानूनी संतुलन बुरी तरह से महिलाओं के पक्ष में ही होना चाहिए। यकीन कीजिए, 10-12 फ़ीसदी से ज़्यादा मामलों में ऐसी सोच का बेज़ा इस्तेमाल नहीं हो सकता। ‘इमरजेंसी मज़िस्ट्रेट’ और ‘मोबाइल फास्ट ट्रैक कोर्ट’ से आम आदमी को बहुत राहत मिलेगी। लेकिन इसके विरोध में वकीलों की जमात सरकार की नाक में दम कर देगी। मीडिया की मदद लेकर ऐसे सुधार के लिए जागरूकता फैलायी जा सकती है।

3. प्रश्न - ‘व्यापक बलात्कार’ की जांच और मुकदमे के निपटारे के लिए क्या मियाद होनी चाहिए?

उत्तर – पुलिस महीने भर में चार्जशीट दाखिल करे और कचहरी दो महीने के भीतर फैसला दे। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की अपील भी दो-दो महीने में निपटायी जाए। यानी सात महीने के भीतर पूरा अपराधी की सज़ा शुरू हो जाए। समय सीमा को लेकर हर स्तर पर जवाबदेही तय होनी चाहिए।

अपवाद – वकीलों की जमात इन प्रावधानों को लेकर खूब हाय-तौबा करेगी। ‘व्यापक बलात्कार’ के आरोपी अगर समाज के रसूख वाले लोग या उनके परिजन हुए तब तो और भी कोहराम मचेगा। बिल्कुल वैसे ही जैसे संजय दत्त के पास से एके-47 राइफ़ल के बरामद होने, या फिर, नवजोत सिंह सिद्धू के घूंसे से मौत हो जाने की कार्यवाही के दौरान हुआ था। इस तरह की बातें आगे भी होंगी। ये भी मुमकिन है कि ‘व्यापक बलात्कार’ के मामले में क़ानून की वो इबारत भी धुंधली पड़ जाए कि ‘भले ही सैकड़ों गुनाहगार छूट जाएं लेकिन किसी बेगुनाह को सज़ा नहीं होनी चाहिए’। समाज में क़ानून का ख़ौफ़ ही तब होगा जब बेगुनाह पर भी सज़ा पाने की तलवार लटकी रहेगी।

ये  ख़ौफ़ भी अज़ीब चीज़ है।  सिर्फ़ कमज़ोरों को ही होती है। प्रभावशाली और अमीरों को पुलिस का ख़ौफ़ नहीं होता। उन्हें मालूम है, पुलिस कैसे ‘मैनेज़’ की जाती है। पुलिस भी जानती है कि क़ानूनन वो किसी को चाँटा तक तो मार नहीं सकती। ये तो पुलिस का ही डंडा होता है कि चाहे नाम मात्र मामलों में ही सही, वो अपराधी को बेनक़ाब कर पाता है। डंडा निरंकुश नहीं हो, इसके लिए हिरासत में दम तोड़ने के मामले को हत्या के बराबर माना जाता है। इससे ज़्यादा ऐहतियात सम्भव नहीं है।

मेरे  एक पुलिस वाले दोस्त ने कभी बताया था कि गिरफ्तारी के 24 घंटे के भीतर आरोपी को अदालत में पेश करना और थाने में किसी थर्ड डिग्री का इस्तेमाल नहीं करना, इन्हीं दो सीमाओं के चलते पुलिस हर उस मामले में फिस्सडी साबित होती है, जहां अपराध का ताल्लुक प्रभावशाली लोगों से होता है। ऐसे आरोपी जानते हैं कि पुलिस उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती। बड़े वकील ज़मानत करवाने से लेकर मुकदमा लड़ने तक उनकी सारी मुश्किलें आसान कर देंगे। उन्हें सिर्फ़ मोटी रकम खर्च करनी पड़ेगी और इसकी उन्हें परवाह नहीं होती। लिहाज़ा, थाने की पूछताछ में जितना चाहो, बरगलाते रहो। ऐसे मामले खासे लम्बे भी चलते हैं। गवाहों का हौसला पस्त हो जाता है। बाक़ी सबूत बेअसर हो जाते हैं। वैसे भी सबूत जुटाने के तमाम वैज्ञानिक तरीके सिर्फ़ क़िताबों में हैं, ज़मीन पर नहीं। दिल्ली तक के पास अपनी फोरेंसिक लैब तक नहीं है। इसीलिए सफ़ेदपोश और सम्पन्न लोगों से जुड़े मामले 10, 20 या 30 साल तक अदालत में घिसटकर अपना दम तोड़ देते हैं। ज़्यादातक मामलों में प्रभावशाली लोगों को सिर्फ़ उतने दिन ही जेल में काटने पड़ते हैं, जितना न्यायिक हिरासत की फांस में फंस पाता है। ये आलम भी तब का है जब किसी ‘बदकिस्मती’ के चलते पुलिस और अदालत ‘मैनेज़’ नहीं होते! पुलिस के शर्मनाक ‘कन्विक्शन रेट’ का निचोड़ इतना ही है। हकीक़त ऐसी ही है। किसी को सही लगे या ग़लत, अच्छा लगे या ख़राब!

4. प्रश्न – बलात्कार की सज़ा क्या होनी चाहिए?

उत्तर – सज़ा कुछ भी हो, बलात्कार की पीड़ा की भरपायी नहीं हो सकती। ये स्त्री के स्त्री होने की सबसे निर्मम सज़ा है। इसीलिए बलात्कार की पीड़ा अगर जीवन भर रहती है, तो बलात्कारी की सज़ा भी जीवन से कम क्यों होनी चाहिए? जीवन का मतलब बची हुई पूरी उम्र से हो या सूली पर चढ़ाए जाने तक की ज़िन्दगी से? यही प्रतिप्रश्न चिन्तन मांगता है। इसे लेकर आमराय नहीं बन सकती। मानवतावादी, संशयवादी, तर्क-कुतर्क के प्रणेता, नैतिकता और नैसर्गिक न्याय के मठाधीशों का ‘पराक्रम’ ही ऐसा होता है कि उनमें एक किसी बात पर सहमति नहीं बन सकती! ये सभी मिलकर बहस को कहीं नहीं पहुँचने देते। बात आगे जाने की करते हैं, रणनीति यथास्थिति क़ायम रखने की होती है। लिहाज़ा, अगर सज़ा सख़्त करनी है तो सख़्ती की मात्रा पर ग़ौर करें। बेज़ा इस्तेमाल की बारीकियों पर नहीं।

मसलन, जैसे ही आपने बलात्कार को अलग-अलग  दर्ज़े में बाँटने की कोशिश  की वैसे ही उस सारी बहस पर पानी फेरने का रास्ता खुल जाएगा, जिसने 17 दिसम्बर के बाद ऐतिहासिक मुकाम बनाया है। हिम्मत कीजिए, फब्तियां कसने और छेड़छाड़ जैसी घटनाओं को भी बलात्कार का दर्ज़ा देने के लिए आगे आइए। फिर देखिए, कैसे समाज में वो ख़ौफ़ पनपता है। इसे प्रायोगिक तौर पर आज़माने में तो कोई हर्ज़ नहीं होना चाहिए।

अपवाद – उम्र क़ैद का मतलब ज़िन्दगी भर की जेल ही होना चाहिए। इसे 20 या 30 साल की सीमा और जेल में बलात्कारी के कथित सदाचरण से नहीं जोड़ा चाहिए। तभी ये पाप के प्रायश्चित का रूप ले पाएगा। किसी भी तरह से नपुंसक बनाने की दलील भी अच्छी है। वैसे माथे पर ‘बलात्कारी’ लिखवा देने में भी किसी को क्या आपत्ति हो सकती है। बेशक, ये बर्बर होगा, लेकिन बलात्कार से ज़्यादा नहीं। लेकिन दोनों में से कुछ भी हो, या कुछ भी नहीं, उम्र क़ैद से कम कुछ भी मंज़ूर नहीं होना चाहिए। फांसी में कोई बुराई नहीं है। सिवाय इसके कि ज़्यादातर महिलाएं बलात्कारी के लिए फांसी की सज़ा को छोटा मानती हैं। उनकी इस दलील में भी दम है फांसी पाकर बलात्कारी ज़ालिम ज़माने का मुक़ाबला वैसे तो नहीं करेगा, जैसा पीड़ित महिला को पूरी ज़िन्दगी करना पड़ता है! यानी, बेकसूर को पूरी ज़िन्दगी का दंश और कसूरवार को पल भर में ज़िन्दगी से छुटकारा!

5. प्रश्न - क्या बलात्कारी  को दया याचिका का अधिकार  होना चाहिए?

उत्तर – बलात्कारी से इस अधिकार को छीनने का कोई फ़ायदा नहीं है। दया याचिका सिर्फ़ फांसी की सज़ा के मामले में होती है। यानी इसकी नौबत तब आएगी, जब तय हो जाए कि बलात्कारी को फांसी मिलेगी। धनन्जय को बर्बर बलात्कारी होने के नाते फांसी नहीं मिली, बल्कि बलात्कार के बाद निर्ममता से हत्या करने के चलते उसे ‘रेयरेस्ट ऑफ द रेयर केस’ माना गया। लिहाज़ा, हत्यारहित बलात्कार के मामले में फांसी की सज़ा से जुड़ी दया याचिका पर भी तभी विचार किया जाए, जब बलात्कार पीड़ित महिला को आपत्ति नहीं हो। यानी राष्ट्रपति या केन्द्र सरकार के दया करने से पहले पीड़ित से उसका नज़रिया जानना चाहिए कि क्या वो दया दिखाना चाहेगी!

अपवाद – प्रतिक्रियावादियों को ये अखर सकता है कि बलात्कार पीड़ित को कैसे राष्ट्रपति से ऊँचा दर्ज़ा दिया जा सकता है! बात दर्ज़े की नहीं, दया दिखाने के प्रथम हक़ की है। सरकार से पहले पीड़ित को दया याचिका पर क्यों नहीं विचार करना चाहिए और अगर उसे ऐतराज़ हो तो सरकार किस मुँह से दया दिखाने की सोच भी पाएगी! महिलाओं को ये अतिरिक्त अधिकार देकर देश उनके प्रति अपने रवैये का इज़हार कर सकता है।

6. प्रश्न – नारी उत्पीड़न और ‘व्यापक बलात्कार’ में फर्क़ कैसे तय होगा?
उत्तर – ससुराल या घर-परिवार में होने वाला दुर्व्यवहार, या ऐसी हरक़त जहां नारी का उत्पीड़न नारी के ही विभिन्न स्वरूपों से होता हो, वहां बलात्कार की परिभाषा को लागू नहीं किया जा सकता।

अपवाद – बलात्कार के दायरे में विपरीत सेक्स की हरक़तें ही सबसे अहम हैं। प्रतिक्रियावादी सवाल खड़े करेंगे कि मर्दों का मर्दों के या महिलाओं के ज़रिये होने वाले यौन शोषण को बलात्कार का दर्ज़ा क्यों नहीं दिया जाना चाहिए? इसकी परिभाषा कैसे अलग हो सकती है? ऐसे हठयोगियों को सख़्ती से बताना पड़ेगा कि उनके लिए बाक़ायदा यौन अपराधों के प्रावधान हैं और वही पर्याप्त हैं।

7. प्रश्न – बलात्कार और बाल अपराधी के बीच नया संतुलन क्या होना चाहिए?
उत्तर – ‘व्यापक बलात्कार’ के लिहाज़ से बाल अपराधी की उम्र को 18 साल से घटाकर 15 साल कर देना चाहिए।

अपवाद – बाल अपराधी की उम्र को घटाने के बाद दुनिया भर से हाय-तौबा की आवाज़ें उठेंगी। लेकिन दुनिया को ये बताना होगा कि भारत ने अपने हालात को देखते हुए क़ानून बनाया है। सभी देश ऐसा ही करते हैं। वर्ना अगर पूरी दुनिया का इंसान एक जैसा है तो फिर अलग-अलग देशों में अलग-अलग क़ानून और परम्पराएं क्यों हैं! खोखली दलीलों से अगर हम सख़्ती से नहीं निपट पाये, तो जल्द ही ‘ढाक के वही तीन पात’ के रूप में नतीज़ा हमारे सामने होगा।

लेखक मुकेश कुमार सिंह जी न्‍यूज के एसोसिएट एडिटर हैं. उनके mukesh1765@gmail.com 
पर सम्पर्क हो सकता है.

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