हिंदुस्तान
अति-महत्वपूर्ण व्यक्तियों (वीआईपी) की सुरक्षा को लेकर सरकार की आलोचना बार-बार होती रही है। दिल्ली में एक युवती के साथ बलात्कार और हत्या के मामले के बाद यह मुद्दा फिर तूल पकड़ रहा है। कई लोगों का कहना है कि बड़ी संख्या में पुलिस कर्मचारी वीआईपी सुरक्षा में तैनात रहते हैं, इसलिए आम आदमी की सुरक्षा और पुलिस के सामान्य कामकाज के लिए पुलिसकर्मी कम पड़ जाते हैं। अब सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है कि वीआईपी सुरक्षा से पुलिस जवानों को हटाकर उन्हें महिलाओं की सुरक्षा में लगाया जाए। सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों से पूछा था कि वे वीआईपी सुरक्षा में कितने पुलिस वालों को लगाते हैं और कितना पैसा इसमें खर्च होता है? दिल्ली सरकार ने जो आंकड़े दिए हैं, वे दिलचस्प हैं। दिल्ली सरकार के मुताबिक, पिछले साल उसने वीआईपी सुरक्षा पर 341 करोड़ रुपये खर्च किए। दिल्ली में 8,049 पुलिस कर्मचारी वीआईपी सुरक्षा में तैनात हैं, जबकि अपराध रोकने और उनकी जांच के लिए 3,448 कर्मचारी हैं। तकरीबन 64,000 पुलिस वाले कानून-व्यवस्था के लिए हैं, जिनमें ट्रैफिक नियंत्रण व दूसरे काम शामिल हैं। यह बात अक्सर कही जाती है कि वीआईपी सुरक्षा की जांच की जाएगी और गैर-जरूरी सुरक्षाकर्मियों को हटाया जाएगा, लेकिन ऐसा होता नहीं है। वीआईपी सुरक्षा का तामझाम घटने की बजाय बढ़ता ही जा रहा है। सुरक्षा की जरूरत नेता, अफसरों या दूसरे लोगों को किसी खतरे की वजह से नहीं, बल्कि अपना रुतबा बढ़ाने के लिए होती है। राजनीतिक वजहों से सुरक्षा का आकलन कैसे प्रभावित होता है, इसका उदाहरण राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड (एनएसजी) की तैनाती है। एनएसजी के कमांडो को विशेष रूप से आतंकवाद विरोधी कार्रवाई के लिए प्रशिक्षित किया जाता है, लेकिन वे वीआईपी सुरक्षा में भी लगे हुए हैं। जब पी चिदंबरम गृह मंत्री थे, तब उन्होंने एनएसजी सुरक्षा प्राप्त लोगों की संख्या 14 पर ला दी थी, पर अब फिर 17 लोगों को एनएसजी के कमांडो मिले हुए हैं और जल्दी ही संख्या बीस के पार हो सकती है। जिन लोगों को एनएसजी सुरक्षा मिली हुई है, उनमें से कई तो ऐसे हैं, जिनको इस सुरक्षा की क्यों जरूरत है, यह समझ में नहीं आता। ऐसे में, अगर सुप्रीम कोर्ट सचमुच वीआईपी सुरक्षा पर अनावश्यक लगे हुए जवानों को मुक्त कर सके, तो आम आदमी की सुरक्षा के लिए अच्छा होगा।
अति-महत्वपूर्ण व्यक्तियों (वीआईपी) की सुरक्षा को लेकर सरकार की आलोचना बार-बार होती रही है। दिल्ली में एक युवती के साथ बलात्कार और हत्या के मामले के बाद यह मुद्दा फिर तूल पकड़ रहा है। कई लोगों का कहना है कि बड़ी संख्या में पुलिस कर्मचारी वीआईपी सुरक्षा में तैनात रहते हैं, इसलिए आम आदमी की सुरक्षा और पुलिस के सामान्य कामकाज के लिए पुलिसकर्मी कम पड़ जाते हैं। अब सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है कि वीआईपी सुरक्षा से पुलिस जवानों को हटाकर उन्हें महिलाओं की सुरक्षा में लगाया जाए। सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों से पूछा था कि वे वीआईपी सुरक्षा में कितने पुलिस वालों को लगाते हैं और कितना पैसा इसमें खर्च होता है? दिल्ली सरकार ने जो आंकड़े दिए हैं, वे दिलचस्प हैं। दिल्ली सरकार के मुताबिक, पिछले साल उसने वीआईपी सुरक्षा पर 341 करोड़ रुपये खर्च किए। दिल्ली में 8,049 पुलिस कर्मचारी वीआईपी सुरक्षा में तैनात हैं, जबकि अपराध रोकने और उनकी जांच के लिए 3,448 कर्मचारी हैं। तकरीबन 64,000 पुलिस वाले कानून-व्यवस्था के लिए हैं, जिनमें ट्रैफिक नियंत्रण व दूसरे काम शामिल हैं। यह बात अक्सर कही जाती है कि वीआईपी सुरक्षा की जांच की जाएगी और गैर-जरूरी सुरक्षाकर्मियों को हटाया जाएगा, लेकिन ऐसा होता नहीं है। वीआईपी सुरक्षा का तामझाम घटने की बजाय बढ़ता ही जा रहा है। सुरक्षा की जरूरत नेता, अफसरों या दूसरे लोगों को किसी खतरे की वजह से नहीं, बल्कि अपना रुतबा बढ़ाने के लिए होती है। राजनीतिक वजहों से सुरक्षा का आकलन कैसे प्रभावित होता है, इसका उदाहरण राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड (एनएसजी) की तैनाती है। एनएसजी के कमांडो को विशेष रूप से आतंकवाद विरोधी कार्रवाई के लिए प्रशिक्षित किया जाता है, लेकिन वे वीआईपी सुरक्षा में भी लगे हुए हैं। जब पी चिदंबरम गृह मंत्री थे, तब उन्होंने एनएसजी सुरक्षा प्राप्त लोगों की संख्या 14 पर ला दी थी, पर अब फिर 17 लोगों को एनएसजी के कमांडो मिले हुए हैं और जल्दी ही संख्या बीस के पार हो सकती है। जिन लोगों को एनएसजी सुरक्षा मिली हुई है, उनमें से कई तो ऐसे हैं, जिनको इस सुरक्षा की क्यों जरूरत है, यह समझ में नहीं आता। ऐसे में, अगर सुप्रीम कोर्ट सचमुच वीआईपी सुरक्षा पर अनावश्यक लगे हुए जवानों को मुक्त कर सके, तो आम आदमी की सुरक्षा के लिए अच्छा होगा।
किसी वक्त भारत में बड़े-बड़े नेता भी कोई खास सुरक्षा नहीं रखते थे। सत्तर
के दशक में जब आतंकवाद फैला व आतंकियों ने कुछ महत्वपूर्ण लोगों को निशाना
बनाया, तब वीआईपी सुरक्षा की अवधारणा ने जड़ पकड़ी। कुछ नेताओं को तो
सचमुच सुरक्षा की जरूरत थी, पर बाकी नेता या कथित महत्वपूर्ण लोगों को यह
रुतबे का प्रतीक मालूम हुआ। लालबत्ती वाली गाड़ी की तरह ही निजी
सुरक्षाकर्मी सत्ता व ‘स्टेटस’ की निशानी बन गए। पंजाब में आतंकवाद वर्षो
पहले खत्म हो गया, किंतु जिन लोगों को उस दौर में सुरक्षा मिली थी, उनमें
से कई को अब तक वह मिली हुई है। यह एक किस्म की सामंती समझ को दिखाता है,
जिसमें राज करने वाले अपना तामझाम दिखाते हुए चलते हैं। जरूरत इस बात की है
कि केंद्र व हर राज्य में एक स्वायत्त विशेषज्ञ समिति हो, जो वीआईपी
सुरक्षा का आकलन करे और बिना राजनीतिक दबाव के फैसले करे। जब तक यह
‘वीआईपी’ होने की धारणा नहीं खत्म होती, तब तक न पुलिस बल और न ही प्रशासन
के बाकी संस्थान यह समझोंगे कि उनका मुख्य काम आम जनता की सेवा करना है।
अगर सचमुच आम जनता की सुरक्षा को मजबूत करना है, तो वीआईपी सुरक्षा को खत्म
करना होगा।
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