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गुरुवार, 29 नवंबर 2012

एक नजर: अरविन्द केजरीवाल

अरविंद केजरीवाल ने व्यवस्था में खामियों के विरुद्ध जब से बिगुल फेंका है तब से वे विभिन्न दलों के नेताओं के सीधे निशाने पर हैं। वे चाहते तो आराम से अपनी नौकरी करते और नेताओं की तरह ही देश की संपदा को लूट सकते थे, लेकिन भारतीय राजस्व व्यवस्था में रहते हुए उन्होंने देखा कि किस तरह से व्यवस्था की खामियों का लाभ उठाते हुए सरकारी सेवक और दलाल आम-आदमी को लूटने में लगे हुए हैं। यह सब देखकर उन्हें अत्यंत दुख हुआ और अंत में उन्होंने सरकारी सेवा को लात मार दी। ऐसा माना जाता है कि शुरुआत में, सरकारी सेवा में रहते हुए उन्होंने अपने स्तर पर लोगों की काफी मदद की और आम-आदमी को जरूरत की सूचना मुहैया कराते रहे, लेकिन सरकारी सेवा में रहते हुए ऐसा ज्यादा दिन तक चलते रहना संभव नहीं था और इसकी भी अपनी सीमा थी। सो, अंतत: उन्होंने सरकारी सेवा को छोड़कर आम-आदमी की सेवा में अपने आप को न्यौछावर कर दिया।

अरविंद केजरीवाल जब सरकारी सेवा में थे, तो उनके सहयोगियों ने जन्मदिन के अवसर पर उन्हें जो भी गिफ्ट दिया उसे उन्होंने तत्क्षण ही जरूरतमंदों को दे दी। इस आदमी के बारे में एक बात तो साफ तौर पर कही जा सकती है कि इसे पैसे का कोई लोभ नहीं है।

सरकारी सेवा से भ्रष्टाचार मिटाने के लिए जनलोकपाल लाने के लिए इन्होंने अन्ना हजारे के साथ मिलकर दिल्ली के जंतर-मंतर और रामलीला मैदान पर आंदोलन किया जिसे देश ही नहीं विदेशों में भी व्यापक तौर पर समर्थन मिला। हर कोई सरकारी सेवा में व्याप्त भ्रष्टाचार को लेकर चिंतित ही नहीं आतंकित भी है क्योंकि इस देश के विकास के लिए जरूरी निधि का एक बड़ा हिस्सा नेता लोग सरकारी सेवकों की मदद से खा जाते हैं और जनता देखती रह जाती है।

अंग्रेजों से देश को आजादी मिलने के बाद लगा था कि देश के आम-आदमी की अपनी सरकार होगी लेकिन पिछले 65 सालों में आम-आदमी हर स्तर पर छला ही गया। आज भी जीवन के लिए जरूरी मूलभूत सुविधायें आम-आदमी की पहुंच से बाहर है। समय-समय पर लोगों ने इसके विरूद्ध में आंदोलन किया लेकिन कोई भी आंदोलन ज्यादा दिन तक नहीं चल सका।

रामलीला मैदान पर अन्ना हजारे के अनशन के दौरान सरकार के प्रतिनिधियों ने वादा किया था कि वे लोकपाल बिल को समय पर लायेंगे लेकिन जैसा कि शुरू से ही नेताओं की नीयत में खोट था और वे सिर्फ देश भर में सरकार के खिलाफ उठ रहे आवाज को मंद करना चाहते थे और उन्होंने ऐसा करने में उस समय तो सफलता पा ली, लेकिन लोगों में सरकार के प्रति गुस्सा अब और बढ़ गया है।

इस सबको देखने के बाद अरविंद केजरीवाल ने राजनीति में आने का निर्णय किया। एक तरह से यह जोखिम भरा काम था, लेकिन राजनीतिज्ञों पर कब तक भरोसा किया जा सकता था। अगर आपको गंदगी साफ करनी है तो गंदगी में उतरना ही होगा, अलग से आप सिर्फ नजारा देख सकते हैं।
इससे पहले राजनीतिक गलतियों का ही परिणाम है कि देश का एक तिहाई से अधिक हिस्सा नक्सलियों के कब्जे में है। हमने विकास तो की लेकिन विकास का दुष्परिणाम यह हुआ कि आदिवासियों को उनकी जमीन से खदेड़ दिया गया। जिन्हें इसका उचित हिस्सा लना चाहिए था उन्हें मिलने के बजाए बिचौलिए अपना हिस्सा लेने में कामयाब रहे और दोनों हाथों से देश की संपत्ति को लूटते रहे। इसके खिलाफ स्थानीय जनता में आक्रोश फूटना शुरू हुआ और आज यह लावा के रूप में उभर गया है जिसे संभालना मुश्किल हो गया है।

अब अरविंद केजरीवाल जब राजनीति में उतर गए हैं और एक साथ उन्होंने भारतीय जनता पार्टी तथा कांग्रेस को कटघरे में खड़ा कर दिया है तो दोनों ही पार्टियां आगबबूला हो गई हैं। इससे पहले भारतीय जनता पार्टी के समर्थक यह मानकर चल रहे थे कि अरविंद केजरीवाल के कारण इस बार सत्ता उनकी हाथ मे है लेकिन जैसे ही अरविंद केजरीवाल ने भाजपा के भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाई और दोनों ही मुख्य पार्टियों को एक ही सिक्के के दो पहलू कहा तो भाजपा (वाजपेयी के दामाद के द्वारा रिलायंस को आंध्रप्रदेश के गोदावरी में केजीबेसिन में गैस का ठेका दिलाने का बहुचर्चित मामला) आपे से बाहर हो गई और अरविंद केजरीवाल को कांग्रेस का एजेंट करार दिया तथा उनके एनजीओ को विदेश से मिल रहे पैसे का हिसाब किताब मांगने लगी, जबकि पहले से इस पर वह चुप थी।

खैर, जो कोई भी हो उसे पारदर्शिता बरतनी होगी। अगर भारत माता का वंदना करना या उनकी तस्वीर को सिर्फ कुछ मुल्लाओं के कहने पर मंच से अरविंद केजरीवाल ने हटाया तो यह बाकई में दुर्भाग्यपूर्ण है। दिल्ली में अरविंद केजरीवाल ने एक बिजली उपभोक्ता की बिजली जोड़ी और उसे मीडिया में जबरदस्त समर्थन मिला लेकिन ऐसा कहा जा रहा है कि उस उपभोक्ता पर सरकार ने केस दर्ज कर लिया है, तो ऐसे में अरविंद को उसके पीछे खड़ा होना होगा ना कि सिर्फ राजनीति चमकाने के लिए मोहरा बनाके छोड़ देना। फिर, उनमें और दूसरों में क्या अंतर रह जाएगा।

पिछले दिनों, कानून मंत्री रहे सलमान खुर्शीद की पत्नी के ट्रस्ट द्वारा विकलांगों के लिए केंद्र सरकार द्वारा जारी किए गए 71 लाख की रकम को बिना कैंप लगाए हड़प लिए जाने का मामला प्रकाश में लाए जाने के बाद तो जैसे राजनीति में भूचाल सा आ गया। खुर्शीद ने अरविंद केजरीवाल को लगभग धमकी भरे अंदाज में कहा कि वे फर्रूखाबाद जायें तो जरूर, लेकिन लौट कर भी आयें। इस बीच, केजरीवाल फर्रूखाबाद जाकर एक सफल रैली भी कर आए और दूसरी तरफ, केंद्र सरकार ने आरोपों की गंभीरता को जांच कराने और खुर्शीद को मंत्रिमंडल से हटाने के बजाए (मनीष तिवारी ने अन्ना हजारे को रामलीला मैंदान पर अनशन के दौरान गालियां थी, देशव्यापी तौर पर इसकी निंदा के कारण उन्हें कांग्रेस प्रवक्ता के पद से हटा दिया गया था लेकिन अब वे सूचना एवं प्रसारण मंत्री बन गए हैं। शशि थरूर फिर से मंत्रिमंडल की शोभा बढ़ा रहे हैं जबकि अभिषके मनु सिंघवी की वापसी हो चुकी है) पहले के दागियों को ना सिर्फ मंत्रिमंडल में शामिल किया बल्कि खुर्शीद को और भी बड़ी जिम्मेदारी देते हुए कानून मंत्री से विदेश मंत्री बना दिया। इससे केंद्र सरकार की भ्रष्टाचार के प्रति नीयत स्पष्ट तौर पर झलकती है।


गांधी और नेहरू परिवार ने आजादी के बाद से ही देश की संपदा को अपनी निजी संपत्ति की तरह इस्तेमाल किया और जैसे जी चाहा उस तरह से विभिन्न ट्रस्टों का निर्माण करके लूटा है। उन्हीं की देखा-देखी अन्य पार्टियां भी राजनीति में आई और अपने जातिगत, धार्मिक, प्रांतगत समीकरणों को बढ़ावा दिया। इस बीच किसी का भला हो या ना हो, सभी पार्टियों के नेताओं ने अपने परिवारों औऱ रिश्तेदारों के नाम पर देश की सपत्ति को कौड़ियों के भाव में लूटा है। तभी तो, केंद्र सरकार केंद्रीय जांच एजेंसी को स्वतंत्र अधिकार नहीं दे रही है उसे डर है कि कहीं अन्यों की तरह ऐसे नेताओं को भी जेलों में ना रहना पड़े। कुछ तुम खाओ, कुछ हम खायें की तर्ज पर राजनीतिक दल देश की निधि को लूटने में लगे हैं। जो लोग इसके खिलाफ आवाज उठाते हैं या तो उन्हें किसी तरह प्रताड़ित करके शांत कर दिया जाता है या उन पर ऐसे आरोप लगाए जाते हैं कि वह फिर इनके खिलाफ आवाज बुलंद नहीं कर पाता है।

खैर, हम बात कर रहे थे, अरविंद केजरीवाल के राजनीति में कूदने की तो। केजरीवाल को कई मुद्दों पर अपनी बात स्पष्ट करनी होगी और उन्हें पारदर्शिता बरतनी होगी। कश्मीर से लेकर अन्य मुद्दों पर जनता के सामने उन्हें अपनी पार्टी के विचारों को रखना होगा। और कुछ लोगों के अनुसार, अगर वे एक नेता औऱ पार्टी पर आरोप लगाते हैं और दूसरों पर चुप रहते हैं तो ऐसा करना उनकी राजनीति के लिए घातक सिद्ध होगा। जैसा कि लोगों ने आरोप लगाया है कि वे नवीन जिंदल और शरद पवार के भ्रष्टाचार पर चुप्पी साध गए तो यह उनके लिए आत्मघाति कदम होगा और फिर वे राजनति की अंधी गली में गुम हो जायेंगे। केजरीवाल को अपने ट्रस्टों का हिसाब-किताब भी साफ और पारदर्शी रखने होगा तथा जनलोकपाल में एनजीओ को मिलने वाली मदद का खुलासा करना भी अनिवार्य करना होगा।

अभी तो शुरुआत है, देखते हैं केजरीवाल इस देश की भ्रष्ट हो चुकी राजनीति को कितना बदल पाते हैं या वे भी अन्यों की तरह इस दलदल में फँस जाते हैं। अभी इस संबंध में किसी भी तरह की टिप्पणी करना जल्दीबाजी होगी।

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