Translet

गुरुवार, 8 नवंबर 2012

बिकाऊ मडिया है या कोई और......????


आज टीवी देखने पर कुछ वैसा ही अनुभव होता है जैसा बीते जमाने में सिनेमा देखते हुए होता था। तब हीरो गुंडों और उनके गुर्गो को पटक-पटक कर मारता था और वे छटपटाते थे तो लोग तालिया बजाते थे। आज राजनेता और उनके प्रवक्ता मीडिया के परेशान कर देने वाले सवालों पर कुछ वैसे ही छटपटाते हैं। बीता महीना टीवी एंकरों के लिए बेहतरीन रहा। उनमें होड़ मची थी कि नेताओं से कौन कितने अच्छे सवाल पूछ सकता है। लोग मीठी जुबान वाले अपने नेताओं को ऐसे सवालों से बचाव की नाकाम-सी कोशिश में लगे देख खुश हो रहे हैं, जिन पर बचाव करना मुमकिन ही नहीं है। कुल मिलाकर वह काग्रेस ही है जिसने मीडिया को अपने नेताओं से परेशान कर दिया, लेकिन पिछले हफ्ते भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी की व्यावसायिक गतिविधियों के कारण भाजपा को भी काग्रेस की तरह ही खुला मौका मिल गया। भाजपा समर्थकों के लिए अपने नेताओं को ऐसी हालत में देखना दुखद रहा जो कल तक रॉबर्ट वाड्रा और वीरभद्र सिंह के खिलाफ आरोप लगा रहे थे। अब उनसे ही भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी की कंपनियों की वित्ताीय अनियमितताओं के खिलाफ जवाब देते नहीं बन रहा है और दुहाई दे रहे हैं कि जाच में इसके खिलाफ तथ्य सामने आने तक इस बारे में कुछ न बोलना ही उचित है।

बहुत मुमकिन है कि गडकरी और उनके नियंत्रण वाली पूर्ति ग्रुप ऑफ कंपनीज के पास अपने निवेशकों के संदिग्ध पते और उनके उस फंड के स्रोत का स्पष्टीकरण हो जो सामाजिक उद्यम में लगा हो, लेकिन अभी तक तो जाचकर्ताओं को ऐसा कोई स्पष्टीकरण दिया नहीं गया। फिर भी मीडिया ट्रायल के अलावा एक और बात है जो मुझे अखर रही है। जब गडकरी ने पूर्ति ग्रुप की तरफ से अपने कारोबार के निर्णय लिए तो क्या इसके लिए उन्होंने पार्टी के दिशा-निर्देशों का पालन किया था? क्या यह निवेश उनकी राजनीतिक जिम्मेदारियों का विस्तार था? क्या यह जिम्मेदारी महाराष्ट्र विधान परिषद के सदस्य के तौर पर निभाई गई थी या महाराष्ट्र भाजपा अध्यक्ष या भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के तौर पर? यदि इसका जवाब बार-बार सोचने पर भी ना में ही आता है तो भाजपा क्यों बार-बार पूर्ति की व्यापारिक गतिविधियों के बचाव में आ रही है? यह गडकरी, उनके एकाउंटेंट, उनके लिए काम करने वाले दूसरे लोगों और उनके ज्योतिषी की जिम्मेदारी है, जो पूर्ति ग्रुप के स्तंभ हैं। यह सही है कि भाजपा का विश्वास अपने नेताओं के निजी मामलों में रक्षा कवच की तरह काम करने में नहीं रहा है, लेकिन यहा सवाल तो उठता ही है। उदाहरण के लिए क्या पार्टी अपने राच्यसभा सासद और नागपुर से गडकरी के करीबी रहे अजय संचेती पर लगे तमाम काली करतूतों के आरोपों की जिम्मेदारी खुद पर लेगी?
जब रॉबर्ट वाड्रा पर आरोप लगे थे और वह अलग-थलग पड़ते दिखाई दे रहे थे तब देशभर में कोलाहल मचा था। केंद्रीय मंत्रिपरिषद के बड़े-बड़े नेता उनके बचाव में सामने आ रहे थे। नेताओं में काग्रेस वंश की चाटुकारिता करने की दास परंपरा के मुताबिक ही गाधी परिवार के इस दामाद के बचाव में बोलने की मानो होड़ मची थी। क्या भाजपा के लिए भी इस अप्रिय परंपरा की बराबरी करना जरूरी हो गया था, जो वह भी अपने नेता के बचाव में इस तरह कूद पड़ी? पूर्ति समूह के फंड के स्रोत से उपजे इस पूरे विवाद से पार्टी अध्यक्ष की प्रतिष्ठा और छवि को पहुंचे नुकसान का आकलन नहीं किया जा सकता। बजाय इन व्यर्थ के कयासों के कि इस पूरी कहानी को लीक किसने किया, तथ्य यही है कि गडकरी की अलमारी में गड़बड़ियों के कुछ कंकाल थे जो अब भरभरा कर सामने आ गए हैं। आम जनता के लिए यह मायने नहीं रखता कि भाजपा की बदनामी के लिए कोई षड्यंत्र रचा गया होगा, क्योंकि उसके बीच तो अब नितिन गडकरी किसी टूटी-फूटी चीज की तरह ही देखे जाएंगे।
दुर्भाग्य से पार्टी के लिए यह नुकसान सिर्फ गडकरी और उनके कारोबारी सहयोगियों तक ही सीमित नहीं है। उनके साथ-साथ बिना सोचे-समझे किए गए वफादारी के प्रदर्शन से भी पार्टी को बड़ी क्षति हुई है। अब गडकरी के बचाव में उतरे पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृण आडवाणी को ही लीजिए, जिन्होंने गडकरी की निजी जिंदगी और व्यापारिक जीवन के बीच एक विभाजन रेखा बनाने की कोशिश की। यह वही आडवाणी हैं जिन्होंने 1996 में खुद पर गलत तरीके से पैसा बनाने के आरोप लगने पर संसद से अपना इस्तीफा सौंप दिया था। आडवाणी ने साफ शब्दों में कहा था कि जब तक वह खुद को पाक साफ साबित नहीं कर देते, वह चुनाव नहीं लड़ेंगे और वह अपने इस वादे पर कायम भी रहे। यह वही आडवाणी हैं जिन्होंने पिछले साल कालेधन से उपजे संकट को रेखाकित करने के लिए देशभर में रथयात्रा निकाली थी। आखिर उन्होंने इन उच्च आदर्शो से क्यों मुंह फेर लिया? आडवाणी के पास इसके अपने स्पष्टीकरण हो सकते हैं, लेकिन वे सभी अरविंद केजरीवाल के इस कथन से कम विश्वसनीय ही होंगे कि काग्रेस और भाजपा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
अब तक के कहे सुने प्रमाण तो यही कहते हैं कि जो लोग मिलकर भाजपा का प्रतिबद्ध वोट बैंक बनाते हैं, अब वही लोग पार्टी नेतृत्व से ऊब गए हैं, क्योंकि पार्टी नेतृत्व आज हकीकत का सामना करना ही नहीं चाहता है। गडकरी का साथ देने वाले नेताओं के एक अनौपचारिक समूह ने पिछले शुक्रवार की रात इस आधार पर ही बैठक कर गडकरी का समर्थन करने का फैसला किया होगा कि पार्टी डरकर कोई फैसला लेती दिखाई न दे, लेकिन वह सब इस कहानी का एक हिस्सा मात्र था। इससे भी बड़ा डर तो यह सता रहा था कि नितिन गडकरी के बाहर जाने से गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का भाजपा में आगे निकलने का रास्ता आसान हो जाएगा। एक बारगी उनके इस डर को नकारा भी नहीं जा सकता। हाल ही में हुई कुछ घटनाएं इस डर को जमीनी स्तर पर और मजबूती ही देती हैं। इस डर का सबसे बड़ा कारण यह धारणा है कि वह सिर्फ मोदी ही हैं जो काग्रेस नीत संप्रग सरकार के सामने कड़ी चुनौती पेश कर सकते हैं। साजिश रचने वाले एक पल के लिए हावी हो सकते हैं, लेकिन लोकप्रियता देर-सबेर सभी प्रतिरोध तोड़कर सबसे आगे आ ही जाती है। जब तक वक्त नहीं बदलता तब तक भारत के मुख्य विपक्षी दल की किस्मत में यही लिखा है कि वह भारतीय जनता पूर्ति के अपयश से दो-चार होती रहे।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें