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रविवार, 25 नवंबर 2012

आखिर आम-आदमी किससे अपनी बात कहे


हरेश कुमार
हमारे देश ने कमोबेश हर दल की कार्यप्रणाली को राष्ट्रीय या क्षेत्रीय स्तर पर देख लिया है, सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। चाहे वह उत्तर भारत का कोई दल हो या दक्षिण भारत को कोई क्षेत्रीय दल या पूरब या पश्चिम भारत का क्षेत्रीय दल। सभी ने हमेशा इस देश के आम-आदमी को धोखा ही दिया है।
अपने देश में एक कहावत है – का पर करूं श्रृंगार कि पिया मोर आन्हर रे। कहने का अर्थ कि देश की जनता अपना दुखड़ा किससे रोए, सारे दल और उसके नेता व संगठन भ्रष्टाचार में लिप्त हैं और यह बात हाल ही में देश के गृह मंत्री और विभिन्न पदों पर कार्यरत वरिष्ठ कांग्रेसी नेता – सुशील कुमार शिंदे के उस बयान से जाहिर हो जाता है जिसमें उन्होंने कहा कि इस देश की जनता घोटालों को जल्द ही भूल जाती है जैसा कि वो बोफोर्स घोटाले को भूल गई।
एक तरफ, राज ठाकरे हैं कि मुंबई में बिहारी लोगों को गालियां देते रहते हैं और उन्हें खदेड़ने की बात सरेआम मीडिया से कहते हैं तो दूसरी तरफ, उन्हीं के चचेरे भाई उद्धव ठाकरे को लगता है कि हम राज से मराठी अस्मिता की लड़ाई में कहीं पीछे ना पड़ जाए तो वो परमिट कोटा की बात तय करने को कहते हैं। और हाल ही में कांग्रेस के महासचिव, दिग्विजय सिंह के द्वारा जारी एक किताब से हम सबको मालूम हुआ है कि ठाकरे परिवार वास्तव में बिहार के मगध प्रांत से देश के विभिन्न भागों में गया था। और यह किताब किसी और ने नहीं बल्कि बाल ठाकरे के पिता, प्रबोधन ठाकरे के द्वारा लिखी गई है।
वहीं, मीडिया कर्मियों के द्वारा यह पूछे जाने पर कि राज ठाकरे पर कब कार्यवायी होगी तो मुंबई के गृहमंत्री पद पर आसीन एनसीपी के नेता – आरआर पाटिल ने कहा कि हम इसकी जांच कर रहे हैं। पता नहीं कब तक वो जांच करेंगे।
इस देश में संविधान ने हर किसी को एक प्रांत से दूसरे प्रांत में जाने वहां रहने और काम करने की आजादी दी है और इस पर किसी को भी रोक लगाने का अधिकार नहीं है। तो फिर राज ठाकरे और बाल ठाकरे एंड परिवार क्या संविधान के उपर हैं या देश में केंद्रीय सत्ता पर आसीन कांग्रेस इसके विरुद्ध कोई कार्यवायी नहीं करना चाहती है।
आप उदाहरण के तौर पर उत्तर प्रदेश को ही ले लें। तो मौलाना मुलायम समय-समय पर अपने हिसाब से राजनीतिक दलों से गठजोड़ करते हैं और अब जबकि उन्हें लग रहा है कि कांग्रेस की छवि दिनों-दिन आम-आदमी की नजर में गिर रही है। दूसरी तरफ उनका स्वास्थ्य भी उन्हें यह इजाजत नहीं दे रहा है कि और ज्यादा दिन तक इंतजार कर सकें।
सो, वे चाहते हैं कि उत्तर प्रदेश में कम से 60 सीट जीतकर आने वाले समय में प्रधानमंत्री पद के लिए अन्य दलों से समझौते (या राजनीतिक सौदेबाजी आप अपनी सहुलियत से जो नाम देना चाहें दे सकते हैं।) कर सकें, बाद में यह मौका फिर आने वाला नहीं है।
ये ऐसी साइकिल (समाजवादी पार्टी का चुनाव चिन्ह) है जो समय और परिस्थिति के लिहाज से अपना स्टैंड बदलता रहता है। जिससे अपनी सहूलियत हो। उसी से हाथ मिला लिया। अब तक के राजनीतिक सफर से तो यही जाहिर होता है। हमें तो लगता है कि उत्तर प्रदेश में जनता से किए वादों को पूरा करने के लिए कांग्रेस को ब्लैकमेल करने की नीति अपना रही है समाजवादी पार्टी। कभी डराकर तो कभी धमकाकर यानि समर्थन वापसी की धमकी देकर। लेकिन याद रखिए कि इन्हें सत्ता की मलाई का स्वाद भी लगा हुआ है और ये इसे यूं ही हाथ से फिसलने नहीं देना चाहते हैं।
चाहे बंगाल में ममता बनर्जी हों या बिहार में नीतीश कुमार सभी की निगाहें केंद्र से मिलने वाली आर्थिक मदद को लेकर टिकी हुई हैं और उसी के अनुसार ये सारे राजनीतिक दल अपने स्टैंड को बदलते रहते हैं।
आज की परिस्थितियों में किसी भी राजनीतिक दल का ना तो कोई स्थायी एजेंडा है और ना ही आम-आदमी की भलाई के लिए कोई वादा। उसे तो बस सत्ता की चाबी अपने हाथ में होने से मतलब है। उसे क्या फर्क पड़ता है कि खुदरा व्यापार में विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियां हमारे देश के करोड़ों किराना व्यवसायियों और उन पर निर्भर करोड़ों परिवारों को बेरोजगार कर देती है। इन्हें मतलब है तो अपनी मतलबपरस्त राजनीति से, जिसमें विरोध के लिए विरोध करना है।
इसी देश ने एक वो भी दौर देखा है जब आजादी के दीवाने अपने सर, कफन बांधकर, देश की आजादी के लिए हर समय मर-मिटने के लिए तैयार रहा करते थे और यही देश है जब हमारे नेता अपने फायदे के लिए देश के निवासियों के पेट पर लात मारने को तैयार बैठे हैं।
विदेशी मीडिया ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की आलोचना क्या कर दी (हालांकि, ये सारी आलोचना एक योजनाबद्ध तरीके से की गई थी) बस फिर क्या था मनमोहन सिंह तो जैसे विदेशी मीडिया को खुश करने के लिए देश की सुरक्षा को भी गिरवी रखने के लिए तैयार बैठे थे, उन्हें तो बस एक मौका चाहिए थे। और विदेशी मीडिया में आलोचना ने मनमोहन को इतना उद्वेलित कर दिया कि वे रीटेल सेक्टर से लेकर तमाम क्षेत्र में विदेशी निवेश की मंजूरी दे बैठे।
तो, देशवासियों का उद्धार अब विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियां करेंगी। अमेरिका और अन्य राष्ट्र जो इन कंपनियों की अन्य शाखाओं को बंद कर रहे थे वे हमारे देश में इसे खोलने के लिए जोरदार लॉबिंग कर रहे थे।
यहां तक कि, फ्रांस जो परमाणु बिजली का सबसे बड़ा उत्पादन कर्ता देश है वह भी भविष्य में इसके खतरे को भांपते हुए इससे किनारा कर रहा है और हमारे देश के नेतागण अपने ही देशवासियों से झूठे वादे कर रहे हैं।
हमने देखा है कि कोयला-खदानों के आवंटन में किस तरह विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं ने अपने-अपने हितों की पूर्ति की और देश के खजाने को जी भरके लूटा। इसमें लगभग सभी दलों के नेता औऱ उसके समर्थक दानकर्ता व्यवसायी शामिल हैं।
अपने देश में एक कहावत प्रचलित है कि अगर आपका राजनीतिक रसूख है तो कोई भी व्यवसायी आपसे मिलकर व्यापार करने के लिए सहर्ष तैयार हो जाएगा। क्योंकि इस देश में, योजनाओं को लागू करने व बनाने के लिए पग-पग पर राजनीतिक रूकावटें डाली जाती है और अगर आपका कोई संपर्क है तो आपके लिए हर योजना बदली जा सकती है और यह यथार्थ है। इस बात से कोई भी राजनीतिक दल और उससे जुड़ा संगठन या नेता इंकार नहीं कर सकता है।

2 टिप्‍पणियां:

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