दैनिक भाष्कर से साभार .....
सियासत के मैदान में बेहद अलग अंदाज में खड़ी हुई आम आदमी पार्टी (आप)
का पहला इम्तहान इस साल के आखिर तक तय है। इस पर उम्मीदों का भारी बोझ है
और बदलाव का सारथी बनने का दबाव भी। अरविंद केजरीवाल, सियासी दलों और अन्ना
हजारे से बातचीत कर ‘आप’ के वर्तमान और भविष्य का जायजा लिया टीम रसरंग ने
बीते करीब डेढ़ साल में देश में उठा जन-आंदोलनों का कारवां अपने पीछे
एक राजनीतिक पार्टी छोड़ गया। दावा है कि यह आम आदमी की पार्टी (आप) है।
अरविंद केजरीवाल इसे बदलाव की मुहिम बता रहे हैं। सियासत के मैदान में पहले
से खड़े कुछ राजनीतिक दल इसे सिरे से खारिज कर रहे हैं, कुछ स्वागत कर रहे
हैं और कुछ अपना डर दबे-छिपे जाहिर कर रहे हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ छिड़े
एक देशव्यापी आंदोलन से निकली आम आदमी पार्टी इसी साल दिल्ली के दंगल से
अपना राजनीतिक सफर शुरू करने जा रही है। मकसद है व्यवस्था में शामिल होकर
व्यवस्था को बदलना। लेकिन, देश में भ्रष्टाचार के मुद्दे को आधार बनाकर
राजनीतिक पदार्पण मुश्किल माना जा रहा है, जहां सियासत की बिसात पर सभी
मोहरे जाति-धर्म और चमकते चेहरों की बिनाह पर चले जाते हैं। जाहिर है, इस
साल आप को अपना पहला मुश्किल इम्तहान देना है।
आंदोलनों से रिचार्ज होती पार्टी
आम आदमी पार्टी की डोर जुड़ी है आंदोलनों की लहर से। केजरीवाल ने पहले
अन्ना हजारे के साथ मिलकर बदलाव की अहमियत बताई और अब बदलाव को साक्षात
बनाने के लिए व्यवस्था में शामिल होने का फैसला किया। अरविंद कहते हैं,
‘अगर हमारी राजनीति को जनता ने स्वीकार किया, तो वही हमारा प्रचार करेगी।
हमारा मकसद चुनाव जीतना नहीं, बल्कि व्यवस्था बदलना है, जिसमें जनता हमारा
साथ देगी।’ उनके इस मॉडल का असर कुछ दिखा भी। पिछले दिनों दिल्ली में हुए
सामूहिक बलात्कार के बाद युवा आक्रोश को आम आदमी पार्टी के लोग केजरीवाल और
अन्ना के पिछले आंदोलन का एक्सटेंशन मानते हैं। अरविंद के करीबी सूत्र के
मुताबिक, ‘युवाओं को अहसास हो गया है कि सरकार निहायती निकम्मी है। यही वजह
है कि युवाओं ने खुद मोर्चा संभाला हुआ है।’ इसके अलावा केजरीवाल बम के
नाम पर आम आदमी को भ्रष्टाचार से लड़ने में मदद मिल रही है। हालांकि, दूसरे
राजनीतिक दल केजरीवाल के बारे में अलग ही राय रखते हैं। सीपीएम, दिल्ली
प्रदेश की महासचिव सेहबा फारूकी कहती हैं, ‘आप को देखकर मुझे व्यक्तिवादी
राजनीति का चेहरा नजर आता है। साथ ही राइट विंग का भी अहसास होता है।’
तैयारियों की रफ्तार तेज
आम आदमी पार्टी के संगठन में ज्यादातर लोग आंदोलन से आए हैं।
तैयारियों का आलम यह है कि पार्टी बनने के तीन महीने के भीतर ही देश के 378
जिलों में कमेटी बन चुकी हैं। अरविंद बताते हैं कि उन्होंने हर जगह
छोटी-छोटी कमेटी बनाई हैं। पार्टी दफ्तरों में दिन-रात काम हो रहा है।
अलग-अलग टीमें सक्रिय कार्यकर्ता का चयन और समीक्षा कर रही हैं। गलत लोगों
को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाने के लिए आंतरिक लोकपाल की व्यवस्था लागू
की है। लेकिन, दिल्ली और केंद्र में सत्ता संभाल रही कांग्रेस इन
तैयारियों को बेमानी करार दे रही है। पार्टी के वरिष्ठ नेता सत्यव्रत
चतुर्वेदी का कहना है, ‘चुनाव के बाद असलियत सामने आ जाएगी। एक कहावत है,
पहले बहुत सुना था हाथी की पूंछ के बारे में, जब देखी तो कीचड़ में लिपटी
मिली। ये लोग पहले सभी राजनीतिक दलों को चोर कह रहे थे, आज खुद उसी जमात
में शामिल हो गए हैं।’
हर मोड़ पर चुनौतियां
सियासी मैदान में कूदते ही केजरीवाल के लिए चुनौतियां बढ़ गई हैं।
सबसे बड़ी चुनौती है जनता के विश्वास को कायम रखना। दूसरा, भ्रष्टाचार के
मुद्दे पर बने रहना और तीसरा अपने वादे के मुताबिक साफ छवि वाले लोगों को
ही पार्टी में शामिल करना। हालांकि, जब अरविंद के एक करीबी से चुनाव की
तैयारियों के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा, ‘पहले ऐसे 20 ईमानदार तो
मिल जाएं!’ कई राजनीतिक विश्लेषकों का यह भी मानना है कि भ्रष्टाचार के
मुद्दे पर लंबी राजनीतिक पारी खेलना मुमकिन नहीं है। इसका जवाब खुद
केजरीवाल देते हैं, ‘कई बार व्यक्तिवादी राजनीति की वजह से भ्रष्टाचार जैसा
अहम मुद्दा गौण हो जाता है। हिमाचल का ताजा उदाहरण हमारे सामने हैं। वहां
जब तक धूमल और वीरभद्र के बीच चलता रहेगा, तब तक भ्रष्टाचार मुद्दा कैसे
बनेगा।’ आम आदमी पार्टी को जाति के समीकरण भी संभालने होंगे। समाजवादी
पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव मोहन सिंह कहते हैं, ‘केजरीवाल देश की जमीनी
सच्चई से मुंह फेर रहे हैं। इस देश में जाति और धर्म के आधार पर ही वोट
बैंक बनते रहे हैं।’ इसके जवाब में अरविंद कहते हैं कि यह देश विविधताओं से
भरा है। अगर विविधता नहीं दिखाई देती, तो यह हमारी कमी है। दूसरी तरफ,
भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष मुख्तार अब्बास नकवी कहते हैं कि आप को जनता
को यह विश्वास दिलाना होगा कि जिन बातों का दावा करते रहे हैं, उनके
प्रतिनिधि उसे पूरा कर सकेंगे। राजनीति के मेले में सिर्फ दो ही विकल्प
होते हैं। या तो गुम हो जाते हैं या फिर गुल खिलाते हैं। देखते हैं इनका
क्या होता है।
भ्रष्टाचार विरोधी रथ का भविष्य
दिल्ली विधानसभा चुनाव में अभी करीब 11 महीने बाकी हैं, लेकिन आप के
भविष्य को कयासबाजी जारी है। मोहन सिंह कहते हैं, ‘केजरीवाल की पार्टी तो
बनने की साथ ही खत्म हो गई थी। देश में ऐसी कई पार्टियां बनीं, लेकिन बिना
गठबंधन और समर्थन के ज्यादा दिन टिक नहीं पाईं। आम आदमी पार्टी को भी दस
वोट मिल जाएं तो बहुत होंगे।’ सीपीएम की सेहबा के दावे भी कुछ ऐसे हैं। वह
कहती हैं, ‘मुझे नहीं लगता कि केजरीवाल का राजनीतिक भविष्य ज्यादा दिनों का
है। हर राजनीतिक दल का एक इतिहास होता है, उसका संघर्ष होता है।
भ्रष्टाचार के मुद्दे को लेकर ज्यादा दिनों तक राजनीति नहीं की जा सकती
है।’
हालांकि, भाजपा एक मुद्दा पकड़कर आगे बढ़ने पर जोर दे रही है। नकवी के
मुताबिक दुनिया का इतिहास है कि अगर कोई आंदोलन अंजाम तक पहुंचा, तो उसका
सिर्फ एक मुद्दा था। नसबंदी वाले मुद्दे को लें या फिर वीपी सिंह के समय
को। सियासत में हिट एंड रन की शैली हिट नहीं है।
अन्ना बिना आप की राह
अन्ना हजारे के आप से दूरी बनाने की वजह से पार्टी की छवि पर चोट
पहुंची है। इसके बावजूद, कभी अन्ना पार्टी के प्रत्याशियों के लिए प्रचार
की बात करते हैं, तो कभी अपनी बात को सिरे से खारिज करते हुए आप से जुड़े
लोगों को सत्ता का भूखा बता देते हैं। अन्ना से जब उनके डांवाडोल रवैये के
बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा, ‘अरविंद मेरे साथी रहे हैं, लेकिन मैं
ऐसे ही प्रत्याशी के लिए प्रचार करना चाहता हूं जो पूरी तरह से ईमानदार हो।
ताकि, बाद में मुझे किसी बात का अफसोस न हो।’
बहरहाल, राजनीतिक तंत्र के साथ-साथ व्यवस्था तंत्र में भी आमूल-चूल
परिवर्तन की मांग हो रही है। ऐसे में, जाति-धर्म और चेहरों से ऊपर उठकर आम
आदमी पार्टी ने मुद्दों की राजनीति का शंखनाद किया है। आप को एक बेहतर
विकल्प के तौर भी देखा जा रहा है। लेकिन, चुनावी अंकगणित के नतीजे चौंकाने
में महारत रखते हैं। अवाम की अदालत केजरीवाल को ताज पहनाती है या फिर
मीडिया के आईने में बनी वचरुअल छवि से परदा उठाती है, यह वक्त बेहतर
बताएगा।
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