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सोमवार, 31 दिसंबर 2012

एक और साल खत्म, क्या नया साल उम्मीदों का होगा?

समय के चक्र का पहिया घूमता रहा और तारिखों के कैलेंडर में एक और साल खत्म हुआ। एक साल जो अपने साल कई यादें दे जा रहा है। कई मायनों में साल २०१२ यादगार रहा। कई ऐसी बातें हुई, कई ऐसी घटनाएं हुई, जो इतिहास के पन्नों में दर्ज हुई, कई पन्ने जो आगे की पीढ़ियां पढेंगी और हमारे आज के देश, समाज के बारे में अपना मत बनाएंगी। हम-आप खुद जब-जब पीछे मुड़ कर देंखेंगे तो उन तारीखों पर एक बारगी सोचेंगे जरुर।

जाते साल को जन-जाग्रति या जन-आंदोलन का साल कहे तो गलत ना होगा। जंतर-मंतर, इंडिया गेट, रामलीला मैदान, आजाद मैदान, जूहु बीच जैसे कई स्थान अब टूरिस्ट प्लेस ना होकर आम आदमी की आवाज के मंच बन गए। हर मसले पर, हर मामले में, हर मुद्दे पर आम आदमी अपनी जिंदगी के कुछ पल निकालकर सड़कों पर आता दिखा, बिलकुल गांधी के तरीके से विरोध जताता हुआ। हाथ में मोमबत्ती लिए, जुबान पर विरोध के नारे लिेए, समूह में। अन्ना का जनलोकपाल आंदोलन हो या केजरीवाल की आम आदमी को राजनीति में लाने की कोशिश, गीतिका हत्याकांड में मंत्री पर लगे आरोप हो या हाल में हुआ दिल्ली गैंगरेप, इस बार वो आम आदमी सड़कों पर दिखा, जिसे दशकों से राजनेता ‘सिर्फ अपने लिए सोचने वाला क्लास’ कहकर नकारते रहे। जिस वर्ग पर हमेशा आरोप लगते रहे कि ये वर्ग चुनाव के दौरान मतदान के दिन की छुट्टी अपने परिवार के साथ पिकनिक मनाने मे गुजारता है और बाद में नेताओं, सिस्टम को हर गली, हर चौराहे पर, नुक्कड़ में कोसता है, लेकिन अपनी आवाज खुलेआम नहीं उठाता। साल-२०१२ हमेशा याद रहेगा हजारों,लाखों आम नागरिकों के शांतिपूर्ण लेकिन देशव्यापी आंदोलित होने के लिए। कभी नेताओं के पीछे भीड़ के रुप में जुटने वाला ये वर्ग, देश-समाज में फैली भ्रष्ट्राचार, अपराध जैसी अनेकों बुराईयों के खिलाफ एकजुट हुआ और समाजसेवियों में अपना नेतृत्व खोजने लगा। साल-२०१२ के जाते-जाते वहीं आम वर्ग अब बिना किसी नेता-समाजसेवी उत्प्रेरक के खुद ही सड़कों पर है। जिस गति से, जिस तेजी से, इस देश के इस ‘आरामतलब’ कहे जाने वाले आम वर्ग में परिवर्तन होते दिखे, उसे देखकर अब तो लगने लगा है कि ये जन-जाग्रति इतनी जल्दी खत्म नहीं होगी, ये आग इतनी जल्दी नहीं बुझेगी।

राजनैतिक परिदृश्य में जाते हुए साल ने हमें कई कड़वी सच्चाईयों से रुबरु कराया। हम जान गए कि यूपी में अब भी मतदाता के सामने मायावती-मुलायम ही है। कांग्रेस के युवराज कहे जाने वाले राहुल गांधी का करिश्मा वैसा होता नहीं दिखा, जितना शोर था। राष्ट्रीय राजनीति में विपक्ष की भूमिका निभा रही बीजेपी भी देश के आम आदमी के सामने एक सशक्त उम्मीदवार लाने में असफल होती दिखी। गुजरात में मोदी तो यूपी में माया-मुलायम ही दिखे। लेकिन इतना जरुर हुआ कि आम आदमी अब विकास, अपराध रहित जीने के माहौल को लेकर संजीदा होता दिखा। पंजाब में अकालियों ने लगातार दूसरी बार सत्ता पर कब्जा कर एक रीत तोड़ी, तो गुजरात में मोदी के विकास की बयार को धर्म और दंगे के आरोप जीतने से रोक नहीं सके। बिहार हो या मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ हो या बंगाल, हर तरफ विकास के मुद्दे विचारधारों से आगे दिखे और विरोधियों को मौका नहीं मिल पाया। क्या हमारे देश का मतदाता धर्म-जाति जैसे दूसरों मुद्दों से गुमराह होना कम कर रहा है? क्या अब आम आदमी रोजी-कपड़ा-मकान के बाद विकास के मुद्दों पर भी अपना मत देना शुरु कर रहा है? ऐसे कई सवाल हमारे मन में साल-२०१२ के जाते-जाते उमड़ने-घुमड़ने लगते हैं। ऐसे में नए साल में आम आदमी को लेकर उम्मीदें बढ़ जाती हैं। क्या इस साल होने वाले चुनाव विकास के मुद्दों पर लड़े और जीते जा सकेंगे? क्या अब नेता हमारे मतदाता को संकीर्ण मुद्दों पर बरगला नहीं पाएंगें? साल-२०१३ अगली केंद्र सरकार और आने वाले दिनों के नेताओं को लेकर कई बातें साफ कर देगा, फिर वो मोदी का प्रधानमंत्री बनने को लेकर कयास हो या राहुल गांधी की राजनीति में सफल होने की कोशिश?
आर्थिक मोर्चों पर भी ये जाता हुआ साल आम आदमी को कई बातें सीखा गया। अब गृहणियों को जितना चाहे उतना पकाएं कि आदत सुधारनी होगी, क्योंकि अब सरकार ने गैस सिलेंडरों पर राशनिंग शुरु कर दी। ये पहला मौका था जब देश का आम आदमी ऐसे किसी फैसले से दो-चार हुआ हो। वहीं महंगाई को रोकने की सरकार की लगातार तमाम कोशिशें कोई बहुत बड़ा चमत्कार नहीं दिखा पाईं और आम आदमी बढ़ती महंगाई से जूझता दिखा। शेयर बाजार में भी घुड़़दौड़ के घोड़ों जैसी तेजी नहीं दिखी। ना ही रियल इस्टेट सेक्टर सोना उगलता रहा। धंधों को मंदी की मार से कहराते देखना अब आम बिजनेसमैन की मजबुरी बन चुका था। सोने के दाम आसमान को नहीं छुए, और चांदी ज़मीन पर ही रही। बाजार में नौकरियों की तंगी से आम युवा वैसे ही जूझता रहा जैसे पिछले कुछ साल से जूझ रहा था। हालात ऐसे हुए कि देश के प्रधानमंत्री को तक कहना पड़ा- पैसे पेड़ पर नहीं उगते। नए साल-२०१३ में महंगाई कम होना शायद कोई चमत्कार होगा। घरेलू गैस सिलेंडरों की राशनिंग वापस होना सपना हो सकता है। नौकरियों की बारिश हो या तनख्वाह-मुनाफे में बढ़ोतरी, इन पर हर कोई शायराना अंदाज में ये ही कहेगा कि – गालिब ख्याल अच्छा है दिल बहलाने के लिए।

महंगाई से पीटे आम आदमी के लिए बॉलीवुड जरुर कुछ नई बातें लेकर आया। १०० करोड़ी क्लब का इतना जोर पहले नहीं दिखा जितना साल-२०१२ में था। हर बड़ा स्टार इस कोशिश में दिखा कि उसकी फिल्म १०० करोड़ी हो जाए, फिर उसके लिए भले ही बॉलीवुड को अमिताभ के बाद खान सितारों के पहले वाले दिनों-सी भोंडी फिल्में देखनी पड़े। मसाला फिल्में आईं और खूब कमाकर गई। लेकिन वहीं अच्छी कहानी, स्टार की जगह कलाकार, बेहतरीन फिल्म प्रोडक्शन के चलते भी कई फिल्मों ने दर्शकों के दिल मे जगह बनाई। सलमान-शाहरुख-आमिर-अक्षय-अजय-रनबीर खूब कमाऊ साबित हुए। वही दर्शकों को बर्फी, पान सिंह तोमर, मक्खी, विकी डोनर, कहानी, गैंग ऑफ वासेपुर, इंग्लिश-विग्लिश जैसी कई फिल्मों ने खूब लुभाया। क्या आने वाले साल-२०१३ में भी मसाला फिल्मों के साथ सार्थक फिल्मों का दौर जारी रहेगा?

हर जाता साल हमें कुछ खट्टे-मीठे अनुभव देकर जाता है। कुछ सीखाकर जाता है। कुछ समझाकर जाता है। हर नए साल के आने पर हम खुद से वादा करते है कि हम अपनी जिंदगी में कुछ सकारात्मक परिवर्तन लाएंगें। हर नए साल पर हमारी कोशिश होती है कि हम अपनी जिंदगी को एक बार फिर उम्मीदों से भर देने की कोशिश करेंगे।

नव वर्ष की शुभकामनाओं के साथ,

एक भारतीय।

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